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________________ १२६ भक्तामर प्रवचन प्रकार के होते हैं। सबकी बाह्य और अन्तर की ऋद्धि एक ही प्रकार की होती है, उनकी इच्छा के बिना ही विहार होता है। तीर्थंकर प्रकृति के प्रताप से समवशरण में जैसी विभूति व शोभा होती है, वैसी अन्य किसी के नहीं होती है। भगवान चार अंगुल ऊँचे हो जाते हैं, नीचे कमल रहते हैं, किन्तु वे अधर ही विहार करते हैं। नियमसार में टीकाकार आचार्य कहते हैं कि आत्मा रजकण का कार्य नहीं करता और राग भी नहीं करता, किन्तु वीतराग मार्ग भुला दिया गया है, इसलिए लोगों को प्रश्न उत्पन्न होता है कि इच्छा रहित वीतराग भगवान वाणी कैसे बोल सकते हैं ? बिना इच्छा के वाणी नहीं निकल सकती है ? उसका समाधान यह है कि वाणी के कारण वाणी निकलती है, इच्छा से वाणी निकलने की बात यथार्थ नहीं है। (कई बार इच्छा होते हुए भी वाणी नहीं निकलती है।) आगे आचार्यदेव बतायेंगे कि समवशरण की ऋद्धि तीर्थंकर देव के सिवाय किसी अन्य के नहीं होती। जो परमातम सो ही मैं गेह-कार्य यद्यपि करें, तदपि स्वानुभव दक्ष । ध्यावे सदा जिनेश पद, होय मुक्त प्रत्यक्ष ।।१८।। जिन सुमरो जिन चिन्तवो, जिन ध्यावो मन शुद्ध। लहो परमपद क्षणिक में, होकर के प्रतिबुद्ध ।।१९।। जिनवर अरु शुद्धात्म में, किंचित् भेद न जान । मोक्ष अर्थ हे योगिजन ! निश्चय से यह मान ।।२०।। सो जिन सो आतम लिखो, निश्चय भेद न रच। यही सार सिद्धान्त का, छोड़ो सर्व प्रपञ्च ।।२१।। जो परमातम सो ही मैं, मैं जो यही परमात्म। ऐसा जान जु योगिजन, करिये कुछ न विकल्प ।।२२।। - मुनिराज योगिन्दुदेव : योगसार पद्यानुवाद काव्य ३७ इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा तादृक्कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि ॥३७॥ हिन्दी काव्य ऐसी महिमा तुम विर्षे, और धरै नहिं कोय। सुरज में जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ।।३७|| अन्वयार्थ - (जिनेन्द्र !) हे जिनेश्वर ! (इत्थम्) इसप्रकार पूर्वोक्तानुसार समवशरण में विराजमान होकर (धर्मोपदेशन-विधौ) धर्मोपदेश की क्रिया करते समय (यथा विभूति: अभूत्) जैसा ऐश्वर्य आपका था (तथा परस्य न) वैसा वैभव अन्य लौकिक देवों में नहीं पाया जाता । (दिनकृतः प्रभा यादृक् प्रहत-अन्धकारा) सूर्य की ज्योति जैसी अन्धकार की नाशक है (तादृक् विकासिनः अपि ग्रह-गणस्य कुतः ?) वैसी ज्योति उदित हुए - टिमटिमाते तारागणों के पास कहाँ से हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती। काव्य ३७ पर प्रवचन हे जिनेन्द्र देव ! अब तो आपने पूर्ण वीतराग दशा प्राप्त कर ली है, किन्तु अल्पज्ञ दशा में जब राग-द्वेष था, तब भी आपको उस राग का आदर नहीं था; क्योंकि उस राग से भी उत्कृष्ट पुण्य का ही बंध होता है। जब धर्मोपदेश होता है, उस समय समवशरणादि बाह्य विभूति का संयोग होता है। ऐसी विभूति अन्य किसी के नहीं होती। आपके अनन्त दर्शन, ज्ञान, चारित्र और वीर्य की पूर्ण दशा अर्थात् अनंत चतुष्टय प्रकट हुए हैं । बाह्य विभूति में भी धर्म का वैभव बतानेवाली दिव्यध्वनि समवशरण आदि के योग्य पुण्य का ही उदय होता है। भगवान की इनस्तुतियों में भी आत्माकीशक्तिका ही वर्णन है।हेनाथ!संयोग
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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