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________________ १२२ भक्तामर प्रवचन यह वाणी बिना इच्छा के ही खिरती है, क्योंकि उनके इच्छा का तो सर्वथा अभाव ही हो गया है। छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) मनुष्य, देव आदि की तरह आपकी वाणी क्रमवाली अर्थात् क्रम-क्रम से एक-एक शब्द के रूप में मुँह से निकलने वाली नहीं है। " चाहे जो प्रश्न करे और भगवान उनका उत्तर दें - समवशरण में ऐसा नहीं होता।” साधारण मनुष्य, स्त्रियाँ भगवान से सीधे प्रश्न नहीं करते। लोक में भी साधारण जन राजसभा में राजा से सीधे प्रश्न नहीं कर सकता। फिर साक्षात् परमात्मा से साधारण (पुण्यहीन) स्त्री-पुरुष प्रश्न कैसे कर सकते हैं? नहीं कर सकते । हे नाथ ! साधक मुमुक्षु को आपकी वाणी इष्ट है, किन्तु अज्ञानी मिथ्यात्वी को इष्ट नहीं लगती । इस पंचमकाल के साधक मुनिगण भी स्वर्ग ही जायेंगे, इस क्षेत्र व काल से मुक्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके अभी विद्यमान मुक्ति के योग्य पुरुषार्थ नहीं है। वर्तमान में स्वर्ग एवं अल्पकाल में मोक्ष जानेवालों को ही आपकी वाणी इष्ट लगती । वीतरागी की वाणी वीतराग स्वभाव और वीतराग - दृष्टिपूर्वक पुण्य का भी यथार्थ स्वरूप बतानेवाली है, किन्तु अन्य किसी की वाणी वास्तविक स्वरूप नहीं बताती है। बालक, वृद्ध, पशु-पक्षी, देव आदि सब उसे अपनीअपनी भाषा में समझ लेते हैं; क्योंकि वह सर्वभाषामय है। वाणी का सर्वभाषामय होना पुण्य के अचिन्त्य योग का परिणाम है। तीर्थंकर की वाणी सब भाषा रूप हो जाती है। जो जीव उसे समझे, वह यही समझता है कि भगवान मेरी भाषा में बोल रहे हैं। यह जीव की योग्यता है और पुण्योदय उसमें निमित्त है। आचार्यदेव दिव्यध्वनि के इस वर्णन द्वारा वीतराग भाव का कथन करते हैं। हे स्वामिन् ! आपकी वाणी मोक्षमार्ग बतलाती है, वह सर्व जीवों को हित का मार्ग बताने में समर्थ है। आपकी वाणी सर्वभाषारूप बन जाती है, उससे आर्य अपनी आर्य भाषा में तथा अनार्य अपनी अनार्य भाषा में आपका उपदेश समझ जाते हैं। भगवान के जीभ, ओष्ठ, कंठ, तालु आदि के हिले बिना सर्वांग से वाणी प्रकट होती है। वह वाणी तो निरक्षरी ही प्रकट होती है, काव्य-३५ १२३ किन्तु श्रोता को वह साक्षरी सुनाई पड़ती है। उनकी ॐकार ध्वनि सुनकर गणधर अर्थ विचारते हैं। उनकी वाणी को ॐकार की उपमा अखण्ड एकाक्षर बताने के लिए दी है। गोम्मटसार में ऐसा वर्णन है कि भगवान की अखण्ड निरक्षरी वाणी निकलती है, किन्तु श्रोता अपनी योग्यतानुसार उसे अपनी भाषा में समझ लेता है। इसप्रकार उक्त आठ श्लोकों में भगवान के आठ प्रतिहार्यों का वर्णन किया है। ये उनकी बाह्य ऋद्धियाँ हैं, जो कि उनकी आन्तरिक पवित्रता की प्रतीक हैं। अब आगामी श्लोकों में भगवान के अतिशयों का वर्णन किया जायेगा । भगवान पृथ्वी पर बिहार नहीं करते, वे साधारण जीवों की तरह पृथ्वीशिला पर नहीं बैठते हैं। निश्चय व्यवहार साथ-साथ निश्चय के समान व्यवहार-मोक्षमार्ग भी ध्यान में ही प्रगट होता है, इसलिए व्यवहार से निश्चय मोक्षमार्ग होता है - यह बात ही नहीं रहती । द्रव्यसंग्रह की गाथा ४८ में कहा है कि “दुविहंपि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जंमुणी णियमा' अर्थात् दोनों प्रकार के मोक्ष के कारण (मोक्षमार्ग) ध्यान में प्रगट होते हैं। निज चैतन्य का आश्रय करने पर निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट होता है ऐसा नहीं है; क्योंकि दोनों एक साथ प्रगट होते हैं। आनन्द के नाथ भगवान आत्मा को ध्येय बनाकर ध्यान करने पर निश्चय-मोक्षमार्ग प्रगट होता है; उसी काल में जो राग शेष रहता है, उसे व्यवहार मोक्षमार्ग कहा जाता है। इस कारण निश्चय - व्यवहार आगे-पीछे नहीं हैं और व्यवहार से निश्चय भी नहीं होता है। - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजीस्वामी प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग २, पृष्ठ ४१३
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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