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________________ १२० भक्तामर प्रवचन जिसकी तुलना में समस्त कान्तिवान पदार्थों का तिरस्कार हो जाये ऐसा प्रकाशमान भामण्डल भगवान के मस्तक के पीछे सुशोभित होता है। उसके सामने सूर्य, चन्द्र का तेज भी फीका लगता है। प्रभु! आपके शरीर की कान्ति एवं प्रकाश से ऐसा लगता है, मानो अनेक उगते हुए सूर्य ही हैं। इससे पूर्णानन्द की प्राप्ति होती है। जिसने पूर्व भव में या इस भव में तीर्थकर नामकर्म का बन्ध किया हो. उसके शरीर की दशा ऐसी होती है। भगवान के शरीर एवं भामण्डल को सूर्य की उपमा नहीं दी है, क्योंकि उनमें सूर्य जैसे आताप नहीं है। इसीप्रकार उन्हें चन्द्रमा की उपमा भी युक्ति-युक्त नहीं है; क्योंकि जहाँ भगवान हैं, वहाँ अज्ञानरूपी रात्रि नहीं दिखती है। इसलिए हे नाथ! आपको सूर्य और चन्द्रमा की उपमा नहीं दी जा सकती - ऐसा आपका भामण्डल है। आपके शरीर की ऐसी ही योग्यता है। आपके अन्तरवर्ती ज्ञानस्वरूप की क्या बात करनी? हे प्रभु! आपकी प्रभा तेजस्वी होते हुए भी आतापकारी नहीं है, वह चन्द्रमा जैसी शीतलता प्रदान करने वाली है। भगवान के समवशरण में रात्रि-दिवस का कोई भेद नहीं है। जब आपको सर्वज्ञ पद प्रकट हुआ, तब तीर्थंकर प्रकृति का फल मिला । यह प्रकृति ध्यानस्थ दशा में बँधती है, किन्तु उसका उदय १३वें गुणस्थान में होता है। जब पूर्ण पवित्रता प्रकटी, तब ऐसा पुण्य होता है। जो यह न समझे, वह तीर्थंकर देव को ही नहीं समझता है। काव्य ३५ स्वर्गापवर्ग-गम-मार्ग-विमार्गणेष्टः सद्धर्म-तत्त्व-कथनैक-पत्रिलोक्याः। दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थ-सर्व भाषा-स्वभाव-परिणाम-गुणैर्प्रयोज्यः ।।३५ ।। हिन्दी काव्य स्वर्ग-मोख-मारग संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत। दिव्य वचन तुम खिरै अगाध, सब भाषागर्भित हित साध ।।३५ ।। अन्वयार्थ - [हे जिनेन्द्र !] (ते दिव्यध्वनिः) आपकी अलौकिक वाणी (स्वर्ग-अपवर्ग) देवलोक व निर्वाणलोक को (गम-मार्ग) जाने के लिए (विमार्गण-इष्टः भवति) अनुसंधान करने में अथवा मार्गदर्शन करने में अभीष्ट है, सहायक है। [ तथा ] (त्रिलोक्याः) तीनों लोकों को (सद्धर्म-तत्त्वकथन-एक-पटुः) समीचीन धर्म-वस्तुस्वरूप या धर्म के तत्त्वों के प्रतिपादन करने में सक्षम है, निपुण है। [ एवं ] (विशदार्थ-सर्व-भाषा-स्वभावपरिणाम-गुणैः प्रयोज्यः) सम्पूर्ण द्रव्य-गुण-पर्यायों के और उनके भावों को प्रगट करने में सक्षम है और सर्वभाषा में परिणत होने की सामर्थ्यवाली होती है। अर्थात् हे दिव्यभाषापते ! आपकी कल्याणकारी दिव्यध्वनि स्वर्ग व मोक्ष का मार्ग दिखानेवाली है तथा तीनों लोकों के प्राणियों को समीचीन धर्म या जीवादि तत्त्वार्थ तथा द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप समझाने में समर्थ है एवं आपकी अलौकिक दिव्यवाणी का यह महान अतिशय है कि वह भिन्न-भिन्न भाषाओं में परिणमन करने के स्वाभाविक गुण से युक्त है। काव्य ३५ पर प्रवचन हे भगवन् ! आपकी दिव्यध्वनि अनक्षरी है। सर्वज्ञ भगवान की वाणी को ही दिव्यध्वनि कहा जाता है। अरहंत भगवान की समवशरण सभा में यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों के भाग्य से प्रतिदिन तीन बार दो-दो घड़ी खिरा करती है, जिनमुख द्रहसौं निकसी अभंग .. पर-परिणतिसौं अत्यन्त भिन्न, निज परिणतिसौं अति ही अभिन्न। अत्यन्त विमल सब ही विशेष, मल लेश शोध राखोन शेष ।।२।। मुनि-मन-मन्दिर को अन्धकार, तिस ही प्रकाशसौं नशत सार। सो सुलभ रूप पावे न अर्थ, जिस कारण भव-भव भ्रमे व्यर्थ ।।४।। तुम गुण सुमिरण सागर अथाह, गणधर सरीख नहीं पार पाह। जो भवदधि पार अभव्य रास, पावै न वृथा उद्यम प्रयास ।।६।। जिन-मुख द्रहसौं निकसी अभंग, अति बेग रूप सिद्धान्त गंग। नय-सप्त-भंग-कल्लोल मान, तिहुँ लोक बही धारा प्रमान ।।७।। - कविवर सन्तलाल : सिद्धचक्रविधान, पंचम पूजा की जयमाला
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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