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________________ काव्य९ काव्य ९ आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति । दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव पदाकरेषु जलजानि विकासभाजि ।।९।। हिन्दी काव्य तुम गुण-महिमा हत-दुख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष। पाप-विनाशकहैतुमनाम, कमल-विकासीज्योंरवि-धाम ।।९।। अन्वयार्थ - हे नाथ ! (तव) आपका (अस्त-समस्त-दोषम्) निर्दोष -समस्त दोषों से रहित, पवित्र (स्तवनम्) गुण-कीर्तन (दूरे आस्ताम्) तो दूर ही रहे, (त्वत् संकथा अपि) आपकी सद्वार्ता - चर्चा मात्र से ही (जगतां दुरितानि हन्ति) प्राणियों के पाप नष्ट हो जाते हैं। जैसे कि (सहस्रकिरणः) सूर्य (दूरे आस्ताम्) तो दूर रहे (तस्य प्रभा एव) उसकी किरणों की कान्ति ही (पद्माकरेषु) सरोवर में (जलजानि) कमलों को (विकासभाञ्जि) प्रफुल्लित (कुरुते) कर देती है। काव्य ९पर प्रवचन इस काव्य में यह चित्रित किया गया है कि वीतरागी देव के गुणों का स्मरण सब दोषों का नाश करनेवाला है। श्री मानतुङ्गाचार्य कहते हैं कि हे जिनेश्वर भगवन् ! आप सम्पूर्ण दोष रहित तो हैं ही, आपका स्तवन भी दोष विनाशक है; इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। निश्चय ही, आपका यह निर्दोष स्तवन सब दोषों का नाश करनेवाला है। हे नाथ ! आपने वीतरागता का मंथन कर अनन्तशक्ति में से सर्वज्ञता और वीतरागता प्रगट की है। इसलिये आपकी वाणी में भी वीतरागता ही प्रगट होती है। अत: मैं आपकी वीतरागता की कथा को समस्त दोषों के नाश होने में कारण मानता हूँ। सुकथा अर्थात् जो वीतरागता एवं सर्वज्ञता प्रकट करने में निमित्त हो, वह सच्ची कथा है। जो आपके इष्टोपदेश का यथार्थ भाव समझे, उसने ही आपकी कथा सुनी - ऐसा कहा जा सकता है। जो यथार्थ श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र द्वारा इसी भव में आत्मा की मोक्षदशा प्रगट करे, उसकी तो बात ही क्या करनी; किन्तु जिसने अविकारी श्रद्धा-ज्ञान और आनन्दमय स्वभाव की मात्र बात ही सुनी है, निर्मल चैतन्यस्वभाव के आश्रय से कल्याण का मार्ग बतानेवाली वीतरागी कथा ही सुनी, वह भी अल्प काल में दोषों का नाश करनेवाला है। निमित्ताधीन दृष्टि और राग-द्वेष की प्रवृत्ति छुड़ाकर चैतन्यस्वभाव की तरफ प्रवृत्ति करानेवाली वार्ता ही सम्यक् कथा है। सर्वज्ञ-वीतराग पद पाने की बात ही सत्यकथा है। जो निमित्त से या पुण्य से लाभ बताता है, वह वीतराग कथा नहीं है। वह तो अनन्त संसार के बन्धनरूप पाप की पुष्टि करनेवाली मिथ्यात्व का कीर्तन करनेवाली विकथा है। ___ जो व्यक्ति परमानन्दमूर्ति चैतन्य सत्ता को भूलकर अल्पज्ञता और राग-द्वेष में लीन है, उससे कहते हैं कि तुझ में नित्य-निरन्तर पूर्णानन्द स्वभाव है। यदि उसमें दृष्टि एवं प्रवृत्ति करे तो तेरे पाप का नाश हुए बिना नहीं रहे। अज्ञानी जीवों ने सच्ची कथा नहीं सुनी। जिसने व्यवहार-पराश्रय-निमित्त और पुण्य से लाभ माना है; उसने वीतराग की कथा नहीं सुनी । हे प्रभु! आपकी सत् कथा जगत् के जीवों के मिथ्यात्व का नाश करने वाली है। जैसे - हजारों किरणों से युक्त सूर्य क्षेत्र की अपेक्षा से दूर है, वैसे ही भाव और स्वकाल अपेक्षा से केवलज्ञान दूर है; तथापि जैसे - प्रातः होते ही (सूर्य प्रकाश में) हाथ की रेखायें दिखती हैं, वैसे ही हे नाथ ! तात्त्विक अन्तर्दृष्टि के अवलोकनपूर्वक आपके स्तवन और पूर्णानन्द की रमणता की तो बात ही अद्भुत और निराली है; किन्तु तेरी कथा अर्थात् वीतराग स्वभाव की वार्ता भी जिसे रुचे, उसके मिथ्यात्व का नाश होता है और जो अनादिकाल से प्रगट नहीं हुआ - ऐसा केवलज्ञानरूपी सूर्य प्रगट होता है। सूर्य का प्रकाश प्रगट होते ही कमल के फूल खिलते हैं। जिसप्रकार विकसित होने की योग्यता वाले कमल के फूल सूर्योदय के उषाकाल में स्वयं विकसित होते हैं। उसी प्रकार आपकी वार्ता सुनने से भव्यजीव विकसित होते हैं। आपकी वीतराग कथा सुनने से हमारा रोम-रोम
SR No.008342
Book TitleBhaktamara Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size385 KB
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