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काव्य ८
मत्त्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनी - दलेषु
मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूद - बिन्दुः ॥८ ॥
हिन्दी काव्य
तव प्रभावतें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन- हार । ज्यों जल-कमल-पत्रपै परै, मुक्ताफलकी दुति विस्तरै ।। ८ ।। अन्वयार्थ - ( नाथ !) हे नाथ ! हे स्वामिन् ! (इति मत्वा) ऐसा मानकर कि 'प्राणियों के अनेक जन्मों में उपार्जित किये हुए पापकर्म आपके सम्यक् स्तवन से तत्काल संपूर्णतया नष्ट हो जाते हैं' (तनु-धिया - अपि) मन्दबुद्धि होने पर भी (मया इदं तव संस्तवनम् ) मेरे द्वारा यह आपका स्तवन (आरभ्यते) प्रारम्भ किया जा रहा है। ( ननु) निश्चय ही [ यह स्तवन ] ( तव प्रभावात्) आपके प्रभाव से (सतां चेत: हरिष्यति ) सत्पुरुषों के चित्त को आकर्षित करेगा । [ जिसप्रकार ] ( उद-बिन्दुः) जल की बूँद (नलिनी - दलेषु) कमलिनी के पत्तों पर (मुक्ता-फल- द्युतिम् ) मोती की कान्ति को (उपैति) प्राप्त करती है। काव्य ८ पर प्रवचन
आचार्य की दृष्टि में तो अन्तर में विद्यमान परम-प्रभुता की अर्थात् अपने ज्ञायक स्वभाव की ही एकता और महिमा है; फिर भी वे परम विनम्रता सहित, तीर्थंकर भगवान को अपने हृदय में स्थापित करते हैं; आचार्य देव सिद्ध परमात्मा को अपने सन्मुख ही मानते हैं। वे कहते हैं - है चैतन्य के सागर ! हे परम पवित्रात्मा ! कहाँ मेरी मन्दबुद्धि और कहाँ आपका केवलज्ञान ? यद्यपि मेरे पास मति-श्रुतज्ञान की तुच्छबुद्धि है, तथापि मैंने उसे अन्तर्मुख किया है, जो केवलज्ञान का बीज है।
काव्य ८
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व्यवहार में आपका स्तवन करता हूँ। जैसे- श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा है"मैं द्रव्य-भाव की स्तुति करता हूँ'; वैसे ही यहाँ कहा है कि मैं आपका स्तवन शुरू करता हूँ । आपकी भक्ति के प्रभाव से प्रसन्न चित्तवालों को यह मेरा स्तोत्र अवश्य ही रुचिकर होगा, यदि उनको वीतराग स्वभाव की रुचि होगी। अरे, जिसे परमात्मा की भक्ति की अभिलाषा हुई है, उसे वीतराग स्वभाव की रुचि क्यों न होगी ? होगी ही । अहो ! आचार्य के हृदय में भक्ति का प्रेम उछला है और वे उपमा देते हैं कि जैसे - पानी की बूँद कमल के पत्ते पर मोती की तरह लगती है - यह कमल के पत्ते का प्रताप है, उसीप्रकार मेरी भक्ति पानी की बूँद के समान है, किन्तु आपके प्रति होने से मुक्ताफल जैसी कान्तिवाली होगी। यद्यपि भक्ति करने में राग होता है; तथापि यह मुक्ताफल की तरह सुशोभित होगी।
हे नाथ ! कमलपत्र पर पानी मोती की तरह सुन्दर लगता है, उसीप्रकार मुझ अल्पज्ञ द्वारा की हुई स्तुति आपके प्रताप से सज्जनों-धर्मात्माओं के चित्त में मुक्ताफल की तरह सुशोभित होगी।
श्रावक का उत्साह
धर्मी के थोड़े शुभभाव का भी महान फल है तो इसकी शुद्धता की महिमा की तो क्या बात! जिसे अन्तर में वीतराग भाव रुचा, उसे वीतरागता के बाह्य निमित्तों के प्रति भी कितना उत्साह हो। वीतरागी जिनमार्ग के प्रति श्रावक का उत्साह कैसा होता है और उसका क्या फल होता है, वह कहते हैंबिम्बादोन्नति यवोन्नतिमेव भक्त्या ये कारयन्ति जिनसा जिनाकृतिं च । पुण्यं तदीयमिह वागपि नैव शक्त्या स्तोतुं परस्य किमु कारयितुः द्वयस्य ।।
"जो जीव भक्ति से बेल के पत्र जितना छोटा जिनमन्दिर बनवाता है और जो जौ के दाने जितनी जिन - आकृति (जिनप्रतिमा) स्थापित कराता है, उसके महान पुण्य का वर्णन करने के लिए इस लोक में सरस्वतीवाणी भी समर्थ नहीं; तो फिर जो जीव ऊँचे-ऊँचे जिनमन्दिर बनवाता है और अतिशय भव्य जिनप्रतिमा स्थापित करवाता है, उसके पुण्य की तो क्या बात ! (पद्मनंदि पंचविंशतिका)
- आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी : श्रावकधर्मप्रकाश, पृष्ठ: १०४