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पाठ चौथा
| इन्द्रियाँ
बेटी - माँ ! पिताजी जैन साहब क्यों कहलाते हैं ? माँ - जैन हैं, इसलिए वे जैन कहलाते हैं। जिन का भक्त सो जैन या
जिन-आज्ञा को माने से जैन । जिनदेव के बताये मार्ग पर चलने
वाला ही सच्चा जैन है। बेटी - और जिन क्या होता है ? माँ - जिसने मोह-राग-द्वेष और इन्द्रियों को जीता वही जिन है। बेटी - तो इन्द्रियाँ क्या हमारी शत्रु हैं जो उन्हें जीतना है ? वे तो
हमारे ज्ञान में सहायक हैं। जो शरीर के चिह्न आत्मा का ज्ञान
कराने में सहायक हैं वे ही तो इन्द्रियाँ हैं। माँ - हाँ बेटी ! संसारी जीव को इन्द्रियाँ ज्ञान के काल में भी निमित्त
होती हैं, पर एक बात यह भी तो हैं कि ये विषय-भोगों में उलझाने में भी तो निमित्त हैं। अत: इन्हें जीतने वाला ही भगवान
बन पाता है। बेटी - तो इन्द्रियों के भोगों को छोड़ना चाहिए, इन्द्रिय ज्ञान को
तो नहीं?
माँ - तुम जानती हो कि इन्द्रियाँ कितनी हैं और किस ज्ञान में
निमित्त हैं? बेटी - हाँ ! वे पाँच होती हैं। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण। माँ - अच्छा बोलो स्पर्शन इन्द्रिय किसे कहते हैं ? बेटी - जिससे छू जाने पर हल्का-भारी, रूखा-चिकना, कड़ा
नरम और ठंडा-गरम का ज्ञान कराना है, उसे स्पर्शन इन्द्रिय
कहते हैं। माँ - जानता तो आत्मा ही है न? बेटी - हाँ ! हाँ !! इन्द्रियाँ तो निमित्त मात्र हैं। इसीप्रकार जिससे
खदा, मीठा, कड़वा, कषायला और चरपरा स्वाद जाना जाता
है, वही रसना इन्द्रिय है। जीभ को ही रसना कहते हैं। माँ - और स्पर्शन क्या है ? बेटी - स्पर्शन तो सारा शरीर ही है। हाँ ! और जिससे हम सूंघते हैं,
वही नाक तो घ्राण इन्द्रिय कहलाती है, यह सुगन्ध और
दुर्गन्ध के ज्ञान में निमित्त होती है। माँ - और रंग के ज्ञान में निमित्त कौन है ? बेटी - आँख ! इसी को चुक्ष कहते हैं। जिससे काला, नीला, पीला,
लाल और सफेद आदि रंगों का ज्ञान हो, वही तो चक्षु इन्द्रिय है
और जिनसे हम सुनते हैं, वे ही कान हैं; जिन्हें कर्ण या श्रोत्र इन्द्रिय कहा जाता है।
माँ - तू तो सब जानती है, पर यह बता कि ये पाँचों ही इन्द्रियाँ किस