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देव दर्शन का सारांश
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो ! आज मैंने महान पुण्योदय से आपके दर्शन प्राप्त किये हैं। आज तक आपको जाने बिना और अपने गुणों को पहिचाने बिना अनंत दुःख पाये हैं।
मैंने इस संसार को अपना जानकर और सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे गये, आत्मा का हित करने वाले वीतराग धर्म को पहिचाने बिना अनंत दुःख प्राप्त किये हैं। आज तक मैंने संसार बढ़ाने वाले और सच्चे सुख का नाश करने वाले पंचेन्द्रिय के विषयों में सुख मानकर, सुख के खजाने स्वपर-भेदविज्ञान रूप अमृत का पान नहीं किया है ॥ १ ॥
पर आज आपके चरण मेरे हृदय में बसे हैं, उन्हें देखकर कुबुद्धि और मोह भाग गये हैं। आत्मज्ञान की कला हृदय में जागृत हो गई है और मेरी रुचि आत्महित में लग गई है। सत्समागम में मेरा मन लगने लगा है। अतः मेरे मन में यह भावना जागृत हो गई है कि आपकी भक्ति ही में रमा रहूँ । हे भगवन् ! यदि वचन बोलूँ तो आत्महित करने वाले प्रिय वचन ही बोलूँ। मेरा चित्त गुणीजनों के गान में ही रहे अथवा आत्महित के रूप शास्त्रों के अभ्यास में ही लगा रहे। मेरा मन दोषों के चिंतन और वाणी दोषों के कथन से दूर रहे || २ ||
मेरे मन में यह भाव जग रहे हैं कि वह दिन कब आयेगा जब मैं हृदय में समता भाव धारण करके, बारह भावनाओं का चिंतवन करके तथा ममतारूपी भूत (पिशाच) को भगाकर वन में जाकर मुनि दीक्षा धारण करूँगा। वह दिन कब आयेगा जब मैं दिगम्बर वेश धारण करके अट्टाईस मूलगुणह धारण करूँगा, बाईस परीषहों पर विजय प्राप्त करूँगा और दश धर्मों को धारण करूँगा, सुख देने वाले बारह प्रकार के तप तपूँगा और आश्रव और बंध भावों को त्याग नये कर्मों को रोककर संचित कर्मों की निर्जरा कर दूँगा || ३ ||
कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ । कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ ।। कर दूर रागादिक निरन्तर, आत्म का निर्मल करूँ । बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल, लहि चरित क्षायिक आचरूँ ।। आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूँ ।
आवे 'अमर' कब सुखद दिन, जब दुःखद भवसागर तरूँ ||४|| वह धन्य घड़ी कब होगी जब मैं अपने में ही रम जाऊँगा। कर्ताकर्म के भेद का भी अभाव करता हुआ राग-द्वेष दूर करूँगा और आत्मा को पवित्र बना लूँगा - जिससे आत्मा में क्षायिक चारित्र प्रकट करके अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य से युक्त हो जाऊँगा । आनन्दकन्द जिनेन्द्रपद प्राप्त कर लूँगा। मेरा वह दिन कब आयेगा जब इस दुःखरूपी भवसागर को पार कर अमर पद प्राप्त करूँगा ||४|| उक्त स्तुति में देव दर्शन से लेकर देव (भगवान) बनने तक की भावना ही नहीं आई है किन्तु भक्त से भगवान बनने की पूरी प्रक्रिया ही आ गई है।
प्रश्न -
१. उक्त स्तुति में कोई भी एक छन्द जो तुम्हें रुचिकर हुआ हो, अर्थ सहित लिखिये एवं रुचिकर होने का कारण भी दीजिए।