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वह क्या वस्तु है ? कषाय राग-द्वेष का ही दूसरा नाम है। जो आत्मा को कसे अर्थात् दुःख दे, उसे ही कषाय कहते हैं। एक तरह से आत्मा में उत्पन्न होने वाला विकार रागद्वेष ही कषाय है अथवा जिससे संसार की प्राप्ति हो वही कषाय है।
सुबोध - ये कषायें कितनी होती हैं ?
प्रबोध - कषायें चार प्रकार की होती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ।
सुबोध - अच्छा तो हम जो गुस्सा करते हैं, उसे ही क्रोध कहते होंगे।
प्रबोध - हाँ भाई ! यह क्रोध बहुत बुरी चीज है।
सुबोध • तो हमें यह क्रोध आता ही क्यों है ?
प्रबोध
मुख्यतया जब हम ऐसा मानते हैं कि इसने मेरा बुरा किया तो आत्मा में क्रोध पैदा होता है। इसी प्रकार जब हम यह मान लेते हैं कि दुनियाँ की वस्तुएँ मेरी हैं, मैं इनका स्वामी हूँ, तो मान हो जाता है।
सुबोध
- यह मान क्या है ?
प्रबोध - घमण्ड को ही मान कहते हैं। लोग कहते हैं कि यह बहुत घमण्डी है। इसे अपने धन और ताकत का बहुत घमण्ड है। रुपया-पैसा, शरीरादि बाह्य पदार्थ टिकने वाले तो हैं नहीं, हम व्यर्थ ही घमण्ड करते हैं।
सुबोध - कुछ लोग छल-कपट बहुत करते हैं?
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प्रबोध - हाँ भाई ! वह भी तो कषाय है, उसे ही तो माया कहते हैं। कहते हैं मायाचारी मर कर पशु होते हैं। मायाचारी जीव के मन में कुछ और होता है, वह कहता कुछ और है और करता उससे भी अलग है । छल-कपट लोभी जीवों को बहुत होता है।
सुबोध - लोभ कषाय के बारे में भी कुछ बताइए ?
प्रबोध
सुबोध
सुबोध
- यह बहुत खतरनाक कषाय है, इसे तो पाप का बाप कहा जाता है । कोई चीज देखी कि यह मुझे मिल जाय, लोभी सदा यही सोचा करता है।
प्रबोध - मिथ्यात्व (उल्टी मान्यता) के कारण परपदार्थ या तो इष्ट (अनुकूल) या अनिष्ट (प्रतिकूल) मालूम पड़ते हैं, मुख्यतया इसी कारण कषाय उत्पन्न होती हैं। जब तत्त्वज्ञान के अभ्यास से परपदार्थ न तो अनुकूल ही मालूम हो और न प्रतिकूल, तब मुख्यतया कषाय भी उत्पन्न न होगी ।
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यह तो सब ठीक है कि कषायें बुरी चीज हैं, पर प्रश्न तो यह है कि ये उत्पन्न क्यों होती हैं और मिटें कैसे ?
प्रश्न -
- अच्छा तो हमें तत्त्वज्ञान प्राप्त करने का अभ्यास करना चाहिए। उसी से कषाय मिटेगी।
प्रबोध - हाँ ! हाँ !! सच बात तो यही है।
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