________________
अष्टपाहुड
जइ दंसणेण सुद्धा उत्ता मग्गेण सावि संजुत्ता। घोरं चरिय चरित्तं इत्थीसु ण 'पव्वया भणिया ।।२५।।
यदि दर्शनेन शुद्धा उक्ता मार्गेण सापि संयुक्ता।।
घोरं चरित्वा चारित्रं स्त्रीषु न पापका भणिता ।।२५।। अर्थ – स्त्रियों में जो स्त्री दर्शन अर्थात् जिनमत की श्रद्धा से शुद्ध है, वह भी मार्ग से संयुक्त कही गई है। जो घोर चारित्र तीव्र तपश्चरणादिक आचरण से पापरहित होती है, इसलिए उसे पापयुक्त नहीं कहते हैं।
भावार्थ - स्त्रियों में जो स्त्री सम्यक्त्व सहित हो और तपश्चरण करे तो पापरहित होकर स्वर्ग को प्राप्त हो इसलिए प्रशंसा करने योग्य है, परन्तु स्त्रीपर्याय से मोक्ष नहीं है ।।२५।। आगे कहते हैं कि स्त्रियों के ध्यान की सिद्धि भी नहीं है -
चित्तासोहि ण तेसिं ढिल्लं भावं तहा सहावेण । विज्जदि मासा तेसिं इत्थीसुण संकया झाणा ।।२६।। चित्ताशोधि न तेषां शिथिल: भावः तथा स्वभावेन।
विद्यते मासा तेषां स्त्रीषु न शंकया ध्यानम् ।।२६।। अर्थ – उन स्त्रियों के चित्त की शुद्धता नहीं है, वैसे ही स्वभाव ही से उनके ढीला भाव है, शिथिल परिणाम है और उनके मासा अर्थात् मास-मास में रुधिर का स्राव विद्यमान है, उसकी शंका रहती है उससे स्त्रियों के ध्यान नहीं है।
भावार्थ - ध्यान होता है वह चित्त शुद्ध हो, दृढ परिणाम हो, किसी तरह की शंका न हो तब होता है सो स्त्रियों के तीनों ही कारण नहीं हैं, तब ध्यान कैसे हो ? ध्यान के बिना केवलज्ञान कैसे उत्पन्न हो और केवलज्ञान के बिना मोक्ष नहीं है, श्वेताम्बरादिक मोक्ष कहते हैं, वह मिथ्या
है।।२६।।
आगे सूत्रपाहुड को समाप्त करते हैं, सामान्यरूप से सुख का कारण कहते हैं -
चित्तशुद्धी नहीं एवं शिथिलभाव स्वभाव से। मासिकधरम से चित्त शंकित रहे वंचित ध्यान से ।।२६।। जलनिधि से पटशुद्धिवत जो अल्पग्राही साधु हैं। हैं सर्व दुख से मुक्त वे इच्छा रहित जो साधु हैं ।।२७।।