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अष्टपाहुड मनुष्यों से पूज्य होता है। तीर्थंकर प्रकृति के बंध के कारण सोलहकारण भावना कही हैं, उनमें पहली दर्शनविशुद्धि है, वही प्रधान है, यही विनयादिक पंद्रह भावनाओं का कारण है, इसलिए सम्यग्दर्शन के ही प्रधानपना है।।३३।। ___ अब कहते हैं कि जो उत्तम गोत्र सहित मनुष्यत्व को पाकर सम्यक्त्व की प्राप्ति से मोक्ष पाते हैं, यह सम्यक्त्व का माहात्म्य है -
लखूण य मणुयत्तं सहियं तह उत्तमेण गोत्तेण। लळूण य सम्मत्तं अक्खयसोक्खं च मोक्खं च ।।३४।।
लब्ध्वा च मनुजत्वं सहितं तथा उत्तमेन गोत्रेण।
लब्ध्वा च सम्यक्त्वं अक्षयसुखं च मोक्षं च ।।३४।। अर्थ - उत्तमगोत्र सहित मनुष्यपना प्रत्यक्ष प्राप्त करके और वहाँ सम्यक्त्व प्राप्त करके अविनाशी सुखरूप केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तथा उस सुखसहित मोक्ष प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - यह सब सम्यक्त्व का माहात्म्य है ।।३४।।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि जो सम्यक्त्व के प्रभाव से मोक्ष प्राप्त करते हैं, वे तत्काल ही प्राप्त करते हैं या कुछ अवस्थान भी रहते हैं ? उसके समाधानरूप गाथा कहते हैं -
विहरदिजाव जिणिंदो सहसट्टसुलक्खणेहिं संजुत्तो। चउतीसअइसयजुदो सा पडिमा थावरा भणिया।।३५।। विहरति यावत् जिनेन्द्रः सहस्राष्टलक्षणैः संयुक्तः।
चतुस्त्रिंशदतिशययुतः सा प्रतिमा स्थावरा भणिता ।।३५।। अर्थ - केवलज्ञान होने के बाद जिनेन्द्र भगवान जबतक इस लोक में आर्यखंड में विहार करते हैं, तबतक उनकी वह प्रतिमा अर्थात् शरीर सहित प्रतिबिम्ब उसको ‘थावर प्रतिमा' इस नाम से कहते हैं। वे जिनेन्द्र कैसे हैं ? एक हजार आठ लक्षणों से संयुक्त हैं। वहाँ श्रीवृक्ष को आदि लेकर एक सौ आठ तो लक्षण होते हैं । तिल मुस को आदि लेकर नो सौ व्यंजन होते हैं। __ चौतीस अतिशयों में दस तो जन्म से ही लिये हुए उत्पन्न होते हैं - १. निस्वेदता, २. निर्मलता,
प्राप्तकर नरदेह उत्तम कुल सहित यह आतमा। सम्यक्त्व लह मुक्ति लहे अर अखय आनन्द परिणमे ।।३४।। हजार अठ लक्षण सहित चौंतीस अतिशय युक्त जिन । विहरें जगत में लोकहित प्रतिमा उसे थावर कहें।।३५।।