________________
दर्शनपाहुड
को भ्रष्टपना देते हैं।
भावार्थ - पापियों का ऐसा ही स्वभाव होता है कि स्वयं पापी हैं, उसीप्रकार धर्मात्मा में दोष बतलाकर अपने समान बनाना चाहते हैं । ऐसे पापियों की संगति नहीं करना चाहिए || ९ || अब कहते हैं कि जो दर्शन भ्रष्ट है, वह मूलभ्रष्ट है, उसको फल की प्राप्ति नहीं होती जह मूलम्मि विणट्ठे दुमस्स परिवार णत्थि परवड्ढी । तह जिणदंसणभट्ठा मूलविणट्ठा ण सिज्झति । । १० ।। यथा मूले विनष्टे द्रुमस्य परिवारस्य नास्ति परिवृद्धिः ।
तथा जिनदर्शन भ्रष्टा: मूलविनष्टाः न सिद्धयन्ति ।।१०।।
अर्थ - जिसप्रकार वृक्ष का मूल विनष्ट होने पर उसके परिवार अर्थात् स्कंध, शाखा, पत्र, पुष्प, फल की वृद्धि नहीं होती, उसीप्रकार जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं, बाह्य में तो नग्न - दिगम्बर यथाजातरूप निर्ग्रन्थ लिंग, मूलगुण का धारण, मयूर पिच्छिका ( मोर के पंखों की पींछी) तथा कमण्डल धारण करना, यथाविधि दोष टालकर खड़े-खड़े शुद्ध आहार लेना - इत्यादि बाह्य शुद्ध वेष धारण करते हैं तथा अन्तरंग में जीवादि छह द्रव्य, नवपदार्थ, सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान एवं भेदविज्ञान से आत्मस्वरूप का अनुभवन - ऐसे दर्शन - मत से बाह्य हैं, वे मूलविनष्ट हैं, उनके सिद्धि नहीं होती, वे मोक्षफल को प्राप्त नहीं करते ।
अब कहते हैं कि जिनदर्शन ही मूल मोक्षमार्ग है
-
जह मूलाओ खंधो साहापरिवार बहुगुणो हो । तह जिणदंसण मूलो णिद्दिट्ठो मोक्खमग्गस्स ।। ११ ।।
-
जिस तरह द्रुम परिवार की वृद्धि न हो जड़ के बिना । बस उस तरह ना मुक्ति हो जिनमार्ग में दर्शन बिना ।। १० ।। मूल ही है मूल ज्यों शाखादि द्रुम परिवार का । बस उस तरह ही मुक्तिमग का मूल दर्शन को कहा ।। ११ ।।
१७
यथा मूलात् स्कंध: शाखापरिवार: बहुगुणः भवति । तथा जिनदर्शनं मूलं निर्दिष्टं मोक्षमार्गस्य । । ११ । ।
अर्थ - जिसप्रकार वृक्ष के मूल से स्कंध होते हैं; कैसे स्कंध होते हैं कि जिनके शाखा आदि