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अष्टपाहुड
१२ ___ अरिहंत, सिद्ध, उनके बिम्ब, चैत्यालय चतुर्विध संघ और शास्त्र में दासत्व हो - जैसे स्वामी का भृत्य दास होता है तदनुसार वह वात्सल्य अंग है। धर्म के स्थान पर उपसर्गादि आयें उन्हें अपनी शक्ति अनुसार दूर करे, अपनी शक्ति को न छिपाये - यह सब धर्म में अति प्रीति हो तब होता है ।।७।।
धर्म का उद्योत करना सो प्रभावना अंग है। रत्नत्रय द्वारा अपने आत्मा का उद्योत करना तथा दान, तप, पूजा-विधान द्वारा एवं विद्या, अतिशय-चमत्कारादि द्वारा जिनधर्म का उद्योत करना वह प्रभावना अंग है।।८।।
इसप्रकार यह सम्यक्त्व के आठ अंग हैं; जिसके यह प्रगट हों उसके सम्यक्त्व है - ऐसा जानना चाहिए।
प्रश्न - यदि यह सम्यक्त्व के चिह्न मिथ्यादृष्टि के भी दिखाई दें तो सम्यक्-मिथ्या का विभाग कैसे होगा?
समाधान - जैसे चिह्न सम्यक्त्वी के होते हैं, वैसे मिथ्यात्वी के तो कदापि नहीं होते, तथापि अपरीक्षक को समान दिखाई दें तो परीक्षा करके भेद जाना जा सकता है। परीक्षा में अपना स्वानुभव प्रधान है । सर्वज्ञ के आगम में जैसा आत्मा का अनुभव होना कहा है, वैसा स्वयं को हो तो उसके होने से अपनी वचन-काय की प्रवृत्ति भी तदनुसार होती है, उस प्रवृत्ति के अनुसार अन्य की भी वचन-काय की प्रवृत्ति पहचानी जाती है - इसप्रकार परीक्षा करने से विभाग होते हैं तथा यह व्यवहार मार्ग है, इसलिए व्यवहारी छद्मस्थ जीवों के अपने ज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति है; यथार्थ सर्वज्ञदेव जानते हैं।
व्यवहारी को सर्वज्ञदेव ने व्यवहार का ही आश्रय बतलाया है । यह अन्तरंग सम्यक्त्वभावरूप सम्यक्त्व है, वही सम्यग्दर्शन है, बाह्यदर्शन, व्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्र और तपसहित अट्ठाईस मूलगुण सहित नग्न दिगम्बर मुद्रा उसकी मूर्ति है, उसे जिनदर्शन कहते हैं। इसप्रकार धर्म का मूल सम्यग्दर्शन जानकर जो सम्यग्दर्शनरहित हैं, उनके वंदन-पूजन का निषेध किया है - ऐसा यह उपदेश भव्यजीवों को अंगीकार करनेयोग्य है ।।२।। अब कहते हैं कि अन्तरंगसम्यग्दर्शन बिना बाह्यचारित्र से निर्वाण नहीं होता -
दंसणभट्ठा भट्ठा सणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं।
सिज्झंति चरियभट्ठा सणभट्ठा ण सिज्झंति ।।३।। * स्वानुभूति ज्ञान गुण की पर्याय है, ज्ञान के द्वारा सम्यक्त्व का निर्णय करना उसका नाम व्यवहारी को व्यवहार का आश्रय समझना, किन्तु भेदरूप व्यवहार के आश्रय से वीतराग अंशरूप धर्म होगा ऐसा अर्थ कहीं पर नहीं समझना ।
दगभ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं उनको कभी निर्वाण ना। हों सिद्ध चारित्रभ्रष्ट पर दृगभ्रष्ट को निर्वाण ना ।।३।।