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अष्टपाहुड वहाँ प्रयोजन ऐसा है कि इस हुण्डावसर्पिणी काल में मोक्षमार्ग की अन्यथा प्ररूपणा करनेवाले अनेक मत प्रवर्तमान हैं। उसमें भी इस पंचमकाल में केवली-श्रुतकेवली का व्युच्छेद होने से जिनमत में भी जड़ वक्र जीवों के निमित्त से परम्परा मार्ग का उल्लंघन करके श्वेताम्बर आदि बुद्धिकल्पित मत हुए हैं। उनका निराकरण करके यथार्थ स्वरूप की स्थापना के हेतु दिगम्बर आम्नाय मूलसंघ में आचार्य हुए और उन्होंने सर्वज्ञ की परम्परा के अव्युच्छेदरूप प्ररूपणा के अनेक ग्रन्थों की रचना की है, उनमें दिगम्बर सम्प्रदाय मूलसंघ नन्दि आम्नाय सरस्वतीगच्छ में श्री कुन्दकुन्द मुनि हुए और उन्होंने पाहुडग्रन्थों की रचना की। उन्हें संस्कृत भाषा में प्राभृत कहते हैं और वे प्राकृत गाथाबद्ध हैं।
काल दोष से जीवों की बुद्धि मन्द होती है, जिससे वे अर्थ नहीं समझ सकते; इसलिए देशभाषामय वचनिका होगी तो सब पढेंगे और अर्थ समझेंगे तथा श्रद्धान दृढ़ होगा - ऐसा प्रयोजन विचार कर वचनिका लिख रहे हैं, अन्य कोई ख्याति, बड़ाई या लाभ का प्रयोजन नहीं है।
इसलिए हे भव्यजीवों ! इसे पढ़कर, अर्थ समझकर, चित्त में धारण करके यथार्थ मत के बाह्यलिंग एवं तत्त्वार्थ का श्रद्धान दृढ़ करना। इसमें कुछ बुद्धि की मंदता से तथा प्रमाद के वश अन्यथा अर्थ लिख दूँ तो अधिक बुद्धिमान मूलग्रन्थ को देखकर, शुद्ध करके पढ़ें और मुझे अल्पबुद्धि जानकर क्षमा करें। अब यहाँ प्रथम दर्शनपाहुड की वचनिका लिखते हैं -
(दोहा) वंदू श्री अरिहंत कू मन वच तन इकतान ।
मिथ्याभाव निवारि मैं करें सुदर्शन ज्ञान ।। अब ग्रन्थकर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य ग्रन्थ के आदि में ग्रन्थ की उत्पत्ति और उसके ज्ञान का कारण जो परम्परा गुरु का प्रवाह, उसे मंगल के हेतु नमस्कार करते हैं -
काऊण णमुक्कारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स। दंसणमग्गं वोच्छामि जहाकम्मं समासेण ।।१।।
कृत्वा नमस्कारं जिनवरवृषभस्य वर्द्धमानस्य। दर्शनमार्गं वक्ष्यामि यथाक्रमं समासेन ।।१।।
कर नमन जिनवर वृषभ एवं वीर श्री वर्द्धमान को। संक्षिप्त दिग्दर्शन यथाक्रम करूँ दर्शनमार्ग का।।१।।