________________
शीलपाहुड
३४७
(छप्पय) जिनदर्शन निग्रंथरूप तत्त्वारथ धारन । सूतर जिनके वचन सार चारित व्रत पारन ।। बोध जैन का जांनि आन का सरन निवारन ।
भाव आत्मा बुद्ध मांनि भावन शिव कारन ।। फुनि मोक्ष कर्म का नाश है लिंग सुधारन तजि कुनय। धरि शील स्वभाव संवारनां आठ पाहुड का फल सुजय ।।१।।
(दोहा) भई वचनिका यह जहाँ सनो तास संक्षेप। भव्यजीव संगति भली मेटै ककरमलेप ।।२।। जयपुर पुर सूवस बसै तहाँ राज जगतेश। ताके न्याय प्रताप” सुखी ढुंढाहर देश ।।३।।
जैनधर्म जयवंत जग किछु जयपुर मैं लेश। तामधि जिनमंदिर घणे तिनकोभलो निवेश।।४।। तिनिमैं तेरापंथ को मंदिर सुन्दर एव । धर्मध्यान तामैं सदा जैनी करै सुसेव ।।५।। पंडित तिनिमैं बहुत हैं मैं भी इक जयचंद। प्रेत्यांसबके मन कियो करन वचनिका मंद ।।६।। कुन्दकुन्द मुनिराजकृत प्राकृत गाथा सार। पाहुड अष्ट उदार लखि करी वचनिका तार ।।७।। इहाँ जिते पंडित हुते तिनि. सोधी येह । अक्षर अर्थ सुवांचि पढ़ि नहिं राख्यो संदेह ।।८।। तौऊ कछू प्रमादतै बुद्धि मंद परभाव। हीनाधिक कछु अर्थ लैसोधो बुध सतभाव ।।९।। मंगलरूप जिनेन्द्रकू नमस्कार मम होहु। विघ्न टलै शुभबंध द्वै यह कारन है मोहु ।।१०।। संवत्सर दस आठ सत सतसठि विक्रमराय।
मास भाद्रपद शुक्ल तिथि तेरसि पूरन थाय ।।११।। इति वचनिकाकार प्रशस्ति । जयतु जिनशासनम् । शुभमिति ।