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शीलपाहुड
३४१ करता है, इसप्रकार शील ही प्रधान है। पाँच आचारों में चारित्र कहा है और यहाँ सम्यक्त्व कहने में चारित्र ही जानना, विरोध न जानना ।।३४।। आगे कहते हैं कि ऐसे अष्टकर्मों को जिनने दग्ध किये वे सिद्ध हुए हैं -
णिद्दड्ढअट्ठकम्मा विसयविरत्ता जिदिदिया धीरा। तवविणयसीलसहिदा सिद्धा सिद्धिं गदिं पत्ता ।।३५।। निर्दग्धाष्टकर्माण: विषयविरक्ता जितेंद्रिया धीराः।
तपोविनयशीलसहिता: सिद्धा: सिद्धिं गतिं प्राप्ताः ।।३५।। अर्थ – जिन पुरुषों ने इन्द्रियों को जीत लिया है इसी से विषयों से विरक्त हो गये हैं और धीर हैं परीषहादि उपसर्ग आने पर चलायमान नहीं होते हैं, तप विनय शील सहित हैं वे अष्टकर्मों को दूर करके सिद्धगति जो मोक्ष उसको प्राप्त हो गये हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं।
भावार्थ - यहाँ भी जितेन्द्रिय और विषयविरक्तता ये विशेषण शील ही को प्रधानता से दिखाते हैं ।।३५।। आगे कहते हैं कि जो लावण्य और शीलयुक्त हैं वे मुनि प्रशंसा के योग्य होते हैं -
लावण्यसीलकुसलोजम्ममहीरुहो जस्स सवणस्स। सो सीलो स महप्पा भमिज गुणवित्थरं भविए ।।३६।। लावण्यशीलकुशल: जन्ममहीरुहः यस्य श्रमणस्य ।
स: शील: स महात्मा भ्रमेत् गुणविस्तारः भव्ये ।।३६।। अर्थ – जिस मुनि का जन्मरूप वृक्ष लावण्य अर्थात् अन्य को प्रिय लगता है ऐसा सर्व अंग सुन्दर तथा मन वचन काय की चेष्टा सुन्दर और शील अर्थात् अंतरंग, मिथ्यात्व विषय रहित परोपकारी स्वभाव - इन दोनों में प्रवीण निपुण हो वह मुनि शीलवान् है, महात्मा है, उसके गुणों का विस्तार लोक में भ्रमता है, फैलता है। भावार्थ - ऐसे मुनि के गुण लोक में विस्तार को प्राप्त होते हैं, सर्वलोक के प्रशंसा योग्य होते
जो जितेन्द्रिय धीर विषय विरक्त तपसी शीलयुत । वे अष्ट कर्मों से रहित हो सिद्धगति को प्राप्त हों।।३५।। जिस श्रमण का यह जन्म तरु सर्वांग सुन्दर शीलयुत। उस महात्मन् श्रमण का यश जगत में है फैलता ।।३६।।