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अष्टपाहुड
पुरिसेण वि सहियाए कुसमयमूढेहि विसयलोलेहिं। संसार भमिदव्वं अरयघरट्ट व भूदेहिं ।।२६।।
पुरिषेणापि सहितेन कुसमयमूढः विषयलोलैः।
संसारे भ्रमितव्यं अरहटघरटं इव भूतैः ।।२६।। अर्थ - जो कुसमय अर्थात् कुमत से मूढ़ हैं वे ही अज्ञानी हैं और वे ही विषयों में लोलुपी हैं, आसक्त हैं, वे जैसे अरहट में घड़ी भ्रमण करती है वैसे ही संसार में भ्रमण करते हैं, उनके साथ अन्य पुरुषों के भी संसार में दु:खसहित भ्रमण होता है।
भावार्थ - कुमती विषयासक्त मिथ्यादृष्टि आप तो विषयों को अच्छे मानकर सेवन करते हैं। कई कुमती ऐसे भी हैं जो इसप्रकार कहते हैं कि सुन्दर विषय सेवन करने से ब्रह्म प्रसन्न होता है (यह तो ब्रह्मानन्द है) यह परमेश्वर की बड़ी भक्ति है, ऐसा कहकर अत्यंत आसक्त होकर सेवन करते हैं। ऐसा ही उपदेश दूसरों को देकर विषयों में लगाते हैं, वे आप तो अरहट की घड़ी की तरह संसार में भ्रमण करते ही हैं, अनेकप्रकार के दुःख भोगते हैं, परन्तु अन्य पुरुषों को भी उनमें लगाकर भ्रमण कराते हैं इसलिए यह विषयसेवन द:ख ही के लिए है. द:खही का कारण है. ऐसा जानकर कुमतियों का प्रसंग न करना, विषयासक्तपना छोड़ना, इससे सुशीलपना होता है ।।२६।।
आगे कहते हैं कि जो कर्म की गांठ विषय सेवन करके आप ही बाँधी है उसको सत्पुरुष तपश्चरणादि करके आप ही काटते हैं -
आदेहि कम्मगंठी जा बद्धा 'विसयरागरंगेहि। तं छिन्दन्ति कयत्था तवसंजमसीलयगणेण||२७।।
आत्मनि कर्मग्रंथि: या बद्धा विषयरागरागैः।
तां छिन्दन्ति कृतार्थाः तप: संयमशीलगुणेन ।।२७।। अर्थ – जो विषयों के रागरंग करके आप ही कर्म की गांठ बांधी है, उसको कृतार्थ पुरुष (उत्तम पुरुष) तप संयम शील के द्वारा प्राप्त हुआ जो गुण उनके द्वारा छेदते हैं, खोलते हैं। १. संस्कृत प्रति में - 'विषयराय मोहेहि' ऐसा पाठ है छाया में 'विषय राग मोहै' है।
भव-भव भ्रमें अरहट घटीसम विषयलोलुप मूढजन। साथ में वे भी भ्रमें जो रहे उनके संग में ।।२६ ।। इन्द्रिय विषय के संग पढ़ जो कर्म बाँधे स्वयं ही। सत्पुरुष उनको खपावे व्रत-शील-संयमभाव से ।।२७।।