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अष्टपाहुड
सम्यग्दर्शनादिक का अंगीकार करना और शील संयम पालना योग्य था वह तो अंगीकार किया नहीं तब मनुष्यजन्म निष्फल ही गया ।
ऐसा भी बताया है कि पहिली गाथा में कुमत - कुशास्त्र की प्रशंसा करनेवाले का ज्ञान निरर्थक कहा था वैसे ही यहाँ रूपादिक का मद करे तो यह भी मिथ्यात्व का चिह्न है, जो मद करे उसे मिथ्यादृष्टि ही जानना तथा लक्ष्मी रूप यौवन कांति से मंडित हो और शीलरहित व्यभिचारी हो तो उसकी लोक में निंदा ही होती है ।। १५ ।।
आगे कहते हैं कि बहुत शास्त्रों का ज्ञान होते हुए भी शील ही उत्तम है -
वायरणछं दवइसे सियववहारणायसत्थेसु ।
वेदेऊण सुदेसु य तेसु सुयं उत्तमं शीलं । । १६ ।।
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व्याकरणछन्दोवैशेषिकव्यवहारन्यायशास्त्रेषु ।
विदित्वा श्रुतेषु च तेषु श्रुतं उत्तमं शीलम् ।। १६ ।।
अर्थ - व्याकरण छंद वैशेषिक व्यवहार न्यायशास्त्र ये शास्त्र और श्रुत अर्थात् जिनागम इनमें उन व्याकरणादिक को और श्रुत अर्थात् जिनागम को जानकर भी इनमें शील हो वही उत्तम है I
भावार्थ - व्याकरणादिक शास्त्र जाने और जिनागम को भी जाने तो भी उनमें शील ही उत्तम है। शास्त्रों को जानकर भी विषयों में ही आसक्त है तो उन शास्त्रों का जानना वृथा है, उत्तम नहीं है।।१६।।
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आगे कहते हैं कि जो शील गुण से मंडित हैं, वे देवों के भी वल्लभ हैं। सीलगुणमंडिदाणं देवा भवियाण वल्लहा होंति । सुदपारयपउरा णं दुस्सीला अप्पिला लोए ।। १७ ।। शीलगुणमंडितानां देवा भव्यानां वल्लभा भवंति ।
श्रुतपारगप्रचुरा: नं दुःशीला अल्पका: लोके ।। १७ ।।
अर्थ - जो भव्यप्राणी शील और सम्यग्दर्शनादि गुण से मंडित है वह देवों के भी उनका देव
व्याकरण छन्दरु न्याय जिनश्रुत आदि से सम्पन्नता ।
हो किन्तु इनमें जान लो तुम परम उत्तम शील गुण ।। १६ ।। शील गुण मण्डित पुरुष की देव भी सेवा करें। ना कोई पूछे शील विरहित शास्त्रपाठी जनों को ।। १७ ।।
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