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अष्टपाहुड __ आगे कहते हैं कि कदाचित् कोई विषयों से विरक्त न हुआ और 'मार्ग' विषयों से विरक्त होनेरूप ही कहता है उसको मार्ग की प्राप्ति होती भी है, परन्तु जो विषय सेवन को ही ‘मार्ग' कहता है, तो उसका ज्ञान भी निरर्थक है -
विसएसु मोहिदाणं कहियं मग्गं पि इट्ठदरिसीणं। उम्मग्गं दरिसीणं णाणं पि णिरत्थयं तेसिं ।।१३।।
विषयेषु मोहितानां कथितो मार्गोऽपि इष्टदर्शिनां।
उन्मार्ग दर्शिनां ज्ञानमपि निरर्थकं तेषाम् ।।१३।। अर्थ – जो पुरुष इष्ट मार्ग को दिखानेवाले ज्ञानी हैं और विषयों से विमोहित हैं तो भी उनको मार्ग की प्राप्ति कही है, परन्तु जो उन्मार्ग को दिखानेवाले हैं उनकी तो ज्ञान की प्राप्ति भी निरर्थक है। ___ भावार्थ - पहिले कहा था कि ज्ञान और शील के विरोध नहीं है और यह विशेष है कि ज्ञान हो और विषयासक्त होकर ज्ञान बिगड़े तब शील नहीं है। अब यहाँ इसप्रकार कहा है कि ज्ञान प्राप्त करके कदाचित् चारित्रमोह के उदय से (उदयवश) विषय न छूटे वहाँ तक तो उनमें विमोहित रहे और मार्ग की प्ररूपणा विषयों के त्यागरूप ही करे उसको तो मार्ग की प्राप्ति होती भी है, परन्तु जो मार्ग ही को कुमार्गरूप प्ररूपण करे विषय-सेवन को सुमार्ग बतावे तो उसकी तो ज्ञान-प्राप्ति भी निरर्थक ही है, ज्ञान प्राप्त करके भी मिथ्यामार्ग प्ररूपे उसके ज्ञान कैसा ? वह ज्ञान मिथ्याज्ञान है।
यहाँ यह आशय सूचित होता है कि सम्यक्त्वसहित अविरत सम्यग्दृष्टि तो अच्छा है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि कुमार्ग की प्ररूपणा नहीं करता है, अपने को (चारित्रदोष से) चारित्रमोह का उदय प्रबल हो तबतक विषय नहीं छूटते हैं इसलिए अविरत है परन्तु जो सम्यग्दृष्टि नहीं है और ज्ञान भी बड़ा हो, कुछ आचरण भी करे, विषय भी छोड़े और कुमार्ग का प्ररूपण करे तो वह अच्छा नहीं है, उसका ज्ञान और विषय छोड़ना निरर्थक है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१३।।
आगे कहते हैं कि जो उन्मार्ग के प्ररूपण करनेवाले कुमत-कुशास्त्र की प्रशंसा करते हैं, वे बहुत शास्त्र जानते हैं तो भी शीलव्रतज्ञान से रहित हैं, उनके आराधना नहीं है -
कुमयकुसुदपसंसा जाणंता बहुविहाई सत्थाई। शीलवदणाणरहिदा ण हु ते आराधया होति ।।१४।।
सन्मार्गदर्शी ज्ञानि तो है सज्ञ यद्यपि विषयरत । किन्तु जो उन्मार्गदर्शी ज्ञान उनका व्यर्थ है।।१३।।