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अष्टपाहुड यथा कांचनं विशुद्धं धमत् खटिकालघणलेपेन।
तथा जीवोऽपि विशुद्धः ज्ञानविसलिलेनं विमलेन ।।९।। अर्थ - जैसे कांचन अर्थात् सुवर्ण खडिय अर्थात् सुहागा (खड़िया क्षार) और नमक के लेप से विशुद्ध निर्मल कांतियुक्त होता है, वैसे ही जीव भी विषयकषायों के मलरहित निर्मल ज्ञानरूप जल से प्रक्षालित होकर कर्मरहित विशुद्ध होता है।
भावार्थ - ज्ञान आत्मा का प्रधान गुण है, परन्तु मिथ्यात्व विषयों से मलिन है इसलिए मिथ्यात्व-विषयरूप मल को दूर करके इसकी भावना करे इसका एकाग्रता से ध्यान करे तो कर्मों का नाश करे, अनन्तचतुष्टय प्राप्त करके मुक्त होकर शुद्धात्मा होता है, यहाँ सुवर्ण का तो दृष्टान्त है वह जानना ।।९।।
आगे कहते हैं कि जो ज्ञान पाकर विषयासक्त होता है वह ज्ञान का दोष नहीं है, कुपुरुष का दोष है -
णाणस्स णत्थि दोसो कुप्पुरिसाणं वि मंदबुद्धीणं । जे णाणगव्विदा होऊणं विसएसु रजंति ।।१०।।
ज्ञानस्य नास्ति दोष: कापुरुषस्यापि मंदबुद्धेः।
ये ज्ञानगर्विता: भूत्वा विषयेषु रज्जन्ति ।।१०।। अर्थ – जो पुरुष ज्ञानगर्वित होकर ज्ञानमद से विषयों में रंजित होते हैं सो यह ज्ञान का ही दोष नहीं है वे मंदबुद्धि कुपुरुष हैं, उनका दोष है। ___ भावार्थ - कोई जाने कि ज्ञान से बहुत पदार्थों को जाने तब विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष है, यहाँ आचार्य कहते हैं कि ऐसे मत जानो, ज्ञान प्राप्त करके विषयों में रंजायमान होता है सो यह ज्ञान का दोष नहीं है, यह पुरुष मंदबुद्धि है और कुपुरुष है उसका दोष है, पुरुष का होनहार खोटा होता है तब बुद्धि बिगड़ जाती है फिर ज्ञान को प्राप्त कर उसके मद में मस्त हो विषयकषायों में आसक्त हो जाता है तो यह दोष-अपराध पुरुष का है, ज्ञान का नहीं है। ज्ञान का कार्य तो वस्तु को जैसी हो वैसी बता देना ही है, पीछे प्रवर्तना तो पुरुष का कार्य है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१०।।
हो ज्ञानगर्भित विषयसुख में रमें जो जन योग से। उस मंदबुद्धि कापुरुष के ज्ञान का कुछ दोष ना ।।१०।।