________________
३२२
अष्टपाहुड और पद के अनुसार चारित्र की प्रवृत्ति होती है जितने अंश रागद्वेष घटता है उतने अंश चारित्र कहते हैं ऐसी प्रकृति को सुशील कहते हैं, इसप्रकार कुशील व सुशील शब्द का सामान्य अर्थ है।
सामान्यरूप से विचारे तो ज्ञान ही कुशील है और ज्ञान ही सुशील है, इसलिए इसप्रकार कहा है कि ज्ञान के और शील के विरोध नहीं है, जब संसार प्रकृति पलट कर मोक्ष सन्मुख प्रकृति हो तब सुशील कहते हैं, इसलिए ज्ञान में और शील में विशेष नहीं कहा है यदि ज्ञान में सुशील न आवे तो ज्ञान को इन्द्रियों के विषय नष्ट करते हैं, ज्ञान को अज्ञान करते हैं तब कुशील नाम पाता है।
यहाँ कोई पूछे - गाथा में ज्ञान अज्ञान का तथा सुशील कुशील का नाम तो नहीं कहा, ज्ञान और शील ऐसा ही कहा है इसका समाधान - पहिले गाथा में ऐसी प्रतिज्ञा की है कि मैं शील के गुणों को कहूँगा अतः इसप्रकार जाना जाता है कि आचार्य के आशय में सुशील ही के कहने का प्रयोजन है, सुशील ही को शीलनाम से कहते हैं, शील बिना कुशील कहते हैं।
यहाँ गुणशब्द उपकारवाचक लेना तथा विशेषवाचक लेना, शील से उपकार होता है तथा शील के विशेष गुण हैं वह कहेंगे । इसप्रकार ज्ञान में जो शील न आवे तो कुशील होता है, इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति होती है तब वह ज्ञान नाम नहीं प्राप्त करता, इसप्रकार जानना चाहिए। व्यवहार में शील का अर्थ स्त्री संसर्ग वर्जन करने का भी है, अत: विषय-सेवन का ही निषेध है। परद्रव्यमात्र का संसर्ग छोड़ना, आत्मा में लीन होना वह परमब्रह्मचर्य है। इसप्रकार ये शील ही के नामान्तर जानना ।।२।।
आगे कहते हैं कि ज्ञान होने पर भी ज्ञान की भावना करना और विषयों से विरक्त होना कठिन है (दुर्लभ है) -
'दुक्खे णजदिणाणं णाणं णाऊण भावणा दुक्खं । भावियमई व जीवो विसयेसु विरज्जए दुक्खं ।।३।।
दुःखेनेयते ज्ञानं ज्ञानं ज्ञात्वा भावना दुःखम् ।
भावितमतिश्च जीव: विषयेषु विरज्यति दुक्खम् ।।३।। अर्थ - प्रथम तो ज्ञान ही दुःख से प्राप्त होता है, कदाचित् ज्ञान भी प्राप्त करे तो उसको १. पाठान्तरः - दुःखे णज्जदि । २. पाठान्तरः - दुःखेन ज्ञायते।
बड़ा दुष्कर जानना अर जानने की भावना। एवं विरक्ति विषय से भी बड़ी दुष्कर जानना ।।३।।