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अथ शीलपाहुड
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अब शीलपाहुड ग्रंथ की देशभाषामयवचनिका का हिन्दी भाषानुवाद लिखते हैं -
(दोहा) भव की प्रकृति निवारिकै, प्रगट किये निजभाव।
है अरहंत जु सिद्ध फुनि, वंदूं तिनि धरि चाव ।।१।। इसप्रकार इष्ट के नमस्काररूप मंगल करके शीलपाहुड नामक ग्रंथ श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कृत प्राकृत गाथाबंध की देशभाषामय वचनिका का हिन्दी भाषानुवाद लिखते हैं। प्रथम श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ग्रंथ की आदि में इष्ट को नमस्काररूप मंगल करके ग्रन्थ करने की प्रतिज्ञा करते हैं -
वीरं विसालणयणं रत्तुप्पलकोमलस्समप्पायं । तिविहेण पणमिऊण सीलगुणाणं णिसामेह ।।१।।
वीरं विशालनयनं रक्तोत्पलकोमलसमपादम् ।
त्रिविधेन प्रणम्य शीलगुणान् निशाम्यामि ।।१।। अर्थ - आचार्य कहते हैं कि मैं वीर अर्थात् अंतिम तीर्थंकर श्रीवर्द्धमानस्वामी परम भट्टारक को मन वचन काय से नमस्कार करके शील अर्थात् निजभावरूप प्रकृति उसके गुणों को अथवा शील और सम्यग्दर्शनादिक गुणों को कहँगा, कैसे हैं श्री वर्धमानस्वामी - विशालनयन हैं, उनके बाह्य में तो पदार्थों को देखने को नेत्र विशाल हैं, विस्तीर्ण हैं, सुन्दर हैं और अंतरंग में केवलदर्शन केवलज्ञानरूप नेत्र समस्त पदार्थों को देखनेवाले हैं और वे कैसे हैं - 'रक्तोत्पलकोमलसमपाद' अर्थात् उनके चरण रक्त कमल के समान कोमल हैं, ऐसे अन्य के नहीं हैं, इसलिए सबसे प्रशंसा करने के योग्य हैं, पूजने योग्य हैं। इसका दूसरा अर्थ ऐसा भी होता है कि रक्त अर्थात् रागरूप
विशाल जिनके नयन अर रक्तोत्पल जिनके चरण । त्रिविध नम उन वीर को मैं शील गुण वर्णन करूँ।।१।।