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अष्टपाहुड
पावदि बालसहावं भावविणट्ठो ण सो सवणो ।।२१।।
पुंश्चलीगृहे य: भुक्ते नित्यं संस्तौति पुष्णाति पिंडं। प्राप्नोति बालस्वभावं भावविनष्ट : न स:
श्र म ण : । । २ १ । । अर्थ – जो लिंगधारी पुंश्चली अर्थात् व्यभिचारिणी स्त्री के घर पर भोजन लेता है, आहार करता है और नित्य उसकी स्तुति करता है कि यह बड़ी धर्मात्मा है इसके साधुओं की बड़ी भक्ति है इसप्रकार से नित्य उसकी प्रशंसा करता है इसप्रकार पिंड को (शरीर को) पालता है वह ऐसा लिंगी बालस्वभाव को प्राप्त होता है, अज्ञानी है, भाव से विनष्ट है, वह श्रमण नहीं है।
भावार्थ - जो लिंग धारण करके व्यभिचारिणी का आहार खाकर पिंड पालता है, उसकी नित्य प्रशंसा करता है, तब जानो कि यह भी व्यभिचारी है, अज्ञानी है, उसको लज्जा भी नहीं आती है. इसप्रकार वह भाव से विनष्ट है, मुनित्व के भाव नहीं हैं, तब मुनि कैसे ? ।।२१।।।
आगे इस लिंगपाहुड को सम्पूर्ण करते हैं और कहते हैं कि जो धर्म का यथार्थरूप से पालन करता है, वह उत्तम सुख पाता है -
इय लिंगपाहुडमिणं सव्वंबुद्धेहिं देसियं धम्मं । पालेइ कट्ठसहियं सो गाहदि उत्तमं ठाणं ।।२२।।
इति लिंगप्राभृतमिदं सर्वं बुद्धैः देशितं धर्मम् ।
पालयति कष्टसहितं स: गाहते उत्तमं स्थानम् ।।२२।। अर्थ – इसप्रकार इस लिंगपाहुड शास्त्र का-सर्वबुद्ध जो ज्ञानी गणधरादि उन्होंने उपदेश दिया है उसको जानकर जो मुनि धर्म को कष्टसहित बड़े यत्न से पालता है, रक्षा करता है वह उत्तमस्थान मोक्ष को पाता है। __ भावार्थ - यह मुनि का लिंग है वह बड़े पुण्य के उदय से प्राप्त होता है उसे प्राप्त करके भी फिर खोटे कारण मिलाकर उसको बिगाड़ता है तो जानो कि यह बड़ा ही अभागा है-चिंतामणि रत्न पाकर कौड़ी के बदले में नष्ट करता है इसीलिए आचार्य ने उपदेश दिया है कि ऐसा पद पाकर इसकी बड़े यत्न से रक्षा करना, कुसंगति करके बिगाड़ेगा तो जैसे पहिले संसार भ्रमण था वैसे ही
सर्वज्ञ भाषित धर्ममय यह लिंगपाहुड जानकर । अप्रमत्त हो जो पालते वे परमपद को प्राप्त हों।।२२।।