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लिंगपाहुड
कंदर्पादिषु वर्त्तते कुर्वाणः भोजनेषु रसगृद्धिम् ।
मायावी लिंगव्यवायी तिर्यग्योनिः न सः श्रमणः ।। १२ ।।
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अर्थ - जो लिंग धारण करके भोजन में भी रस की वृद्धि अर्थात् अति आसक्तता को करता रहता है, वह कंदर्प आदिक में वर्तता है, उसके काम सेवन की वांछा तथा प्रमाद निद्रादिक प्रचुर मात्रा में बढ़ जाते हैं तब 'लिंगव्यवायी' अर्थात् व्यभिचारी होता है, मायावी अर्थात् कामसेवन के लिए अनेक छल करना विचारता है, जो ऐसा होता है वह तिर्यंचयोनि है, पशुतुल्य है, मनुष्य नहीं है, इसलिए श्रमण भी नहीं है ।
भावार्थ – गृहस्थपद छोड़कर आहार में लोलुपता करने लगा तो गृहस्थपद में अनेक रसीले भोजन मिलते थे, उनको क्यों छोड़े ? इसलिए ज्ञात होता है कि आत्मभावना के रस को पहिचाना ही नहीं है, इसलिए विषयसुख की ही चाह रही तब भोजन के रस की, साथ के अन्य भी विषयों की चाह होती है तब व्यभिचार आदि में प्रवर्त कर लिंग को लजाता है, ऐसे लिंग से तो गृहस्थपद ही श्रेष्ठ है, ऐसे जानना ।। १२ ।।
आगे फिर इसी को विशेषरूप से कहते हैं -
धावदि पिंडणिमित्तं कलहं काऊण भुञ्जदे पिंडं । अवरपरूई संतो जिणमग्गि ण होइ सो समणो ।। १३ ।। धावति पिंडनिमित्तं कलहं कृत्वा भुंक्ते पिंडम् । अपरप्ररूपी सन् जिनमार्गी न भवति सः श्रमणः ।। १३ ।।
अर्थ – जो लिंगधारी पिंड अर्थात् आहार के निमित्त दौड़ता है, आहार के निमित्त कलह
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करके आहार को भोगता है, खाता है और उसके निमित्त अन्य से परस्पर ईर्ष्या करता है, वह श्रमण जिनमार्गी नहीं है ।
भावार्थ इस काल में जिनलिंग से भ्रष्ट होकर पहिले अर्द्धफालक हुए, पीछे उनमें श्वेताम्बरादिक संघ हुए, उन्होंने शिथिलाचार पुष्ट कर लिंग की प्रवृत्ति बिगाड़ी, उनका यह निषेध है। इनमें अब भी कई ऐसे देखे जाते हैं जो आहार के लिए शीघ्र दौड़ते हैं, ईर्यापथ की सुध नहीं है और आहार गृहस्थ के घर से लाकर दो चार शामिल बैठकर खाते हैं, उसमें बंटवारे में सरस, नीरस आवे तब परस्पर कलह करते हैं और उसके निमित्त परस्पर ईर्ष्या करते हैं, इसप्रकार की
जो कलह करते दौड़ते हैं इष्ट भोजन के लिये ।
अर परस्पर ईर्षा करें वे श्रमण जिनमार्गी नहीं ।। १३ ।।