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लिंगपाहुड भेषधारी नाचता है, गाता है, बजाता है वैसे यह भी भेषी हुआ तब उत्तम भेष को लजाया, इसलिए लिंग धारण करके ऐसा होना युक्त नहीं है ।।४।। आगे फिर कहते हैं -
सम्मूहदि रक्खेदि य अटुं झाएदि बहुपयत्तेण । सो पावमोहिदमदी तिरिक्खजोणी ण सो समणो ।।५।। समूहयति रक्षति च आर्त ध्यायति बहुप्रयत्नेन ।
सः पापमोहितमति: तिर्यग्योनि: न स: श्रमणः ।।५।। अर्थ – जो निर्ग्रन्थ लिंग धारण करके परिग्रह को संग्रहरूप करता है अथवा उसकी वांछा चितवन ममत्व करता है और उस परिग्रह की रक्षा करता है उसका बहुत यत्न करता है, उसके लिए आर्तध्यान निरंतर ध्याता है, वह पाप से मोहित बुद्धिवाला है, तिर्यंचयोनि है, पशु है, अज्ञानी है, श्रमण तो नहीं है, श्रमणपने को बिगाड़ता है ऐसे जानना ।।५।। आगे फिर कहते हैं -
कलहं वादं जूवा णिच्चं बहुमाणगव्विओ लिंगी। 'वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण ।।६।।
कलह वादं द्यूतं नित्यं बहुमानगर्वित: लिंगी।
व्रजति नरकं पाप: कुर्वाण: लिंगिरूपेण ।।६।। अर्थ - जो लिंगी बहत मान कषाय से गर्ववान हआ निरंतर कलह करता है, वाद करता है, द्यूतक्रीड़ा करता है, वह पापी नरक को प्राप्त होता है और पाप से ऐसे ही करता रहता है।
भावार्थ - जो गृहस्थरूप करके ऐसी क्रिया करता है, उसको तो यह उलाहना नहीं है, क्योंकि कदाचित् गृहस्थ तो उपदेशादिक का निमित्त पाकर कुक्रिया करता रह जाय तो नरक न जावे, परन्तु लिंग धारण करके उसरूप से कुक्रिया करता है तो उसको उपदेश भी नहीं लगता है, इससे नरक का ही पात्र होता है ।।६।। १. पाठान्तर वच्च वज'।
जो आर्त होते जोड़ते रखते रखाते यत्न से। वे पाप मोहितमती हैं वे श्रमण नहिं तिर्यंच हैं ।।५।। अर कलह करते जुआ खेलें मानमंडित नित्य जो। वे प्राप्त होते नरकगति को सदा ही जिन लिंगधर ।।६।।