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सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की परिभाषा बताते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि जो जाने, सो ज्ञान: जो देखे.सो दर्शन और पण्य और पाप का परिहार ही चारित्र है अथवा तत्त्वरुचि सम्यग्दर्शन, तत्त्व का ग्रहण सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप का परिहार सम्यक्चारित्र है।
तपरहित ज्ञान और ज्ञानरहित तप - दोनों ही अकार्य हैं. किसी काम के नहीं हैं. क्योंकि मक्ति तो ज्ञानपूर्वक तप से होती है। ध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, पर ज्ञान-ध्यान से भ्रष्ट कुछ साधुजन कहते हैं कि इस काल में ध्यान नहीं होता, पर यह ठीक नहीं है। क्योंकि आज भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के धनी साधजन आत्मा का ध्यान कर लौकान्तिक देवपने को प्राप्त होते हैं और वहाँ से चयकर आगामी भव में निर्वाण की प्राप्ति करते हैं। पर जिनकी बुद्धि पापकर्म से मोहित है, वे जिनेन्द्रदेव तीर्थंकर का लिंग (वेष) धारण करके भी पाप करते हैं; वे पापी मोक्षमार्ग से च्युत ही हैं।
निश्चयतप का अभिप्राय यह है कि जो योगी अपने आत्मा में अच्छी तरह लीन हो जाता है, वह निर्मलचरित्र योगी अवश्य निर्वाण की प्राप्ति करता है।
इसप्रकार मुनिधर्म का विस्तृत वर्णन कर श्रावकधर्म की चर्चा करते हुए सबसे पहले निर्मल सम्यग्दर्शन को धारण करने की प्रेरणा देते हैं। कहते हैं कि अधिक कहने से क्या लाभ है ? मात्र इतना जान लो कि आज तक भूतकाल में जितने सिद्ध हए हैं और भविष्यकाल में भी जितने सिद्ध होंगे, वह सर्व सम्यग्दर्शन का ही माहात्म्य है।
आगे कहते हैं कि जिन्होंने सर्वसिद्धि करनेवाले सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया है, वे ही धन्य हैं, वे ही कृतार्थ हैं, वे ही शूरवीर हैं और वे ही पंडित हैं।
अन्त में मोक्षपाहुड का उपसंहार करते हुए आचार्य कहते हैं कि सबसे उत्तम पदार्थ निज शुद्धात्मा ही है, जो इसी देह में रह रहा है। अरहतादि पंचपरमेष्ठी भी निजात्मा में ही रत हैं और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी इसी आत्मा की अवस्थाएँ हैं; अत: मुझे तो एक आत्मा का ही शरण है।
इसप्रकार इस अधिकार में मोक्ष और मोक्षमार्ग की चर्चा करते हुए स्वद्रव्य में रति करने का उपदेश दिया गया है तथा तत्त्वरुचि को सम्यग्दर्शन, तत्त्वग्रहण को सम्यग्ज्ञान एवं पुण्य-पाप के परिहार को सम्यकचारित्र कहा गया है। अन्त में एकमात्र निज भगवान आत्मा की ही शरण में जाने की पावन प्रेरणा दी गई है।
इस अधिकार में समागत कुछ महत्त्वपूर्ण सूक्तियाँ इसप्रकार हैं -
(१) आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं - आत्मस्वभाव में सुरत योगी निर्वाण का लाभ प्राप्त करता है।
(२) परदव्वादो दुग्गइ सद्दव्वादो हु सुग्गई होइ - परद्रव्य के आश्रय से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के आश्रय से सुगति होती है।
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