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मोक्षपाहुड
२८५ को मोक्षमार्ग में ग्रहण किया है अर्थात् माने हैं। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समंतभद्राचार्य ने भी कहा है कि - "विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्तते।।८०॥
भावार्थ - मुनि हैं वे लौकिक कष्टों और कार्यों से रहित हैं। जैसा जिनेश्वरदेव ने मोक्षमार्ग बाह्य अभ्यंतर परिग्रह से रहित नग्न दिगम्बररूप कहा है वैसे ही प्रवर्तते हैं, वे ही मोक्षमार्गी हैं, अन्य मोक्षमार्गी नहीं हैं ।।८।। आगे फिर मोक्षमार्गी की प्रवृत्ति कहते हैं -
उद्धद्धमज्झलोये केई मज्झं ण अहयमेगागी। इय भावणाए जोई पावंति हु सासयं सोक्खं ।।८१।। ऊर्ध्वाधोमध्यलोके केचित् मम न अहममेकाकी। इति भावनया योगिनः प्राप्नुवंति स्फुटं शाश्वतं
स । रु य म . । । ८ १ । । अर्थ - मुनि ऐसी भावना करे - ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक इन तीनों लोकों में मेरा कोई भी नहीं है, मैं एकाकी आत्मा हूँ, ऐसी भावना से योगी मुनि प्रकटरूप से शाश्वत सुख को प्राप्त करता है।
भावार्थ - मुनि ऐसी भावना करे कि त्रिलोक में जीव एकाकी है इसका संबंधी दूसरा कोई नहीं है, यह परमार्थरूप एकत्व भावना है। जिस मुनि के ऐसी भावना निरन्तर रहती है वही मोक्षमार्गी है, जो भेष लेकर भी लौकिकजनों से लाल पाल रखता है, वह मोक्षमार्गी नहीं है।।८१।। आगे फिर कहते हैं -
देवगुरूणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिता। झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ।।८२।।
देवगुरूणां भक्ता: निर्वेदपरंपरा विचिन्तयन्तः।
ध्यानरताः सुचरित्राः ते गृहीता: मोक्षमार्गे ।।८२।। अर्थ - जो मुनि देवगुरु के भक्त हैं, निर्वेद अर्थात् संसार देह-भोगों से विरागता की परंपरा
जो ध्यानरत सुचरित्र एवं देव-गुरु के भक्त हैं। संसार-देह विरक्त वे मुनि मुक्तिमारग में कहे ।।८२।।