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मोक्षपाहुड वे प्राणी कैसे हैं वह आगे कहते हैं -
सम्मत्तणाणरहिओ अभव्वजीवोहु मोक्खपरिमुक्को। संसारसुहे सुरदो ण हु कालो भणइ झाणस्स ।।७४।। सम्यक्त्वज्ञानरहित: अभव्यजीव: स्फुटं मोक्षपरिमुक्तः।
संसारसुखे सुरत: न स्फुटं काल: भणति: ध्यानस्य ।।७४।। अर्थ - पूर्वोक्त ध्यान का अभाव कहनेवाला जीव सम्यक्त्व और ज्ञान से रहित है, अभव्य है इसी से मोक्ष रहित है और संसार के इन्द्रिय सुखों को भले जानकर उनमें रत है, आसक्त है, इसलिए कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है।
भावार्थ - जिसको इन्द्रियों के सुख ही प्रिय लगते हैं और जीवाजीव पदार्थ के श्रद्धान-ज्ञान से रहित है वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि इसप्रकार कहनेवाला अभव्य है, इसको मोक्ष नहीं होगा ।।७४।।
जो ऐसा मानता है-कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं तो उसने पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति का स्वरूप भी नहीं जाना -
पंचसु महव्वदेसु य पंचसु समिदीसु तीसु गुत्तीसु। जो मूढो अण्णाणी ण हु कालो भणइ झाणस्स ।।५।। पंचसु महाव्रतेषु च पंचसु समितिषु तिसृषु गुप्तिसु।
यः मूढः अज्ञानी न स्फुटंकाल: भणिति ध्यानस्य ।।७५।। अर्थ – जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति इनमें मूढ है, अज्ञानी है अर्थात् इनका स्वरूप नहीं जानता है और चारित्रमोह के तीव्र उदय से इनको पाल नहीं सकता है वह इसप्रकार कहता है कि अभी ध्यान का काल नहीं है।।७५।।
आगे कहते हैं कि अभी इस पंचमकाल में धर्मध्यान होता है, यह नहीं मानता है, वह अज्ञानी है -
जो मूढ़ अज्ञानी तथा व्रत समिति गुप्ति रहित हैं। वे कहें कि इस काल में निज ध्यान योग नहीं बने ।।७५।। भरत-पंचमकाल में निजभाव में थित संत के। नित धर्मध्यान रहे न माने जीव जो अज्ञानि वे ।।७६।।