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________________ २७२ अष्टपाहुड ___ अर्थ - जहाँ ज्ञान तो चारित्र रहित है, तपयुक्त भी है, परन्तु वह दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व से रहित है, अन्य भी आवश्यक आदि क्रियायें हैं, परन्तु उनमें भी शुद्ध भाव नहीं है, इसप्रकार लिंगभेष ग्रहण करने में क्या सुख है ? भावार्थ - कोई मुनि भेषमात्र से तो मुनि हुआ और शास्त्र भी पढ़ता है। उसको कहते हैं कि शास्त्र पढ़कर ज्ञान तो किया, परन्तु निश्चय चारित्र तो शुद्ध आत्मा का अनुभवरूप तथा बाह्य चारित्र निर्दोष नहीं किया, तप का क्लेश बहुत किया, सम्यक्त्व भावना नहीं हुई और आवश्यक आदि बाह्य क्रिया की, परन्तु भाव शुद्ध नहीं किये तो ऐसे बाह्य भेषमात्र से तो क्लेश ही हुआ, कुछ शांतभावरूप सुख तो हुआ नहीं और यह भेष परलोक के सुख में भी कारण नहीं हुआ; इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक भेष (जिन-लिंग) धारण करना श्रेष्ठ है ।।५७।। आगे सांख्यमती आदि के आशय का निषेध करते हैं - अच्चेयणं पिचेदा जो मण्णइ सो हवेइ अण्णाणी। सो पुण णाणी भणिओ जो मण्णइ चेयणे चेदा ।।५८।। अचेतनेऽपिचेतनं यःमन्यते सः भवति अज्ञानी। स: पुन: ज्ञानी भणित: य मन्यते चेतने चेतनम् ।।५८।। अर्थ – जो अचेतन में चेतन को मानता है वह अज्ञानी है और जो चेतन में ही चेतन को मानता है, उसे ज्ञानी कहा है। भावार्थ - सांख्यमती ऐसे कहता है कि पुरुष तो उदासीन चेतनास्वरूप नित्य है और यह ज्ञान है वह प्रधान का धर्म है, इनके मत में पुरुष को उदासीन चेतनास्वरूप माना है अतः ज्ञान बिना तो वह जड़ ही हुआ, ज्ञान बिना चेतन कैसे ? ज्ञान को प्रधान का धर्म माना है और प्रधान को जड़ माना तब अचेतन में चेतना मानी तब अज्ञानी ही हुआ। __ नैयायिक, वैशेषिक मतवाले गुण-गुणी में सर्वथा भेद मानते हैं, तब उन्होंने चेतना गुण को जीव से भिन्न माना तब जीव तो अचेतन ही रहा । इसप्रकार अचेतन में चेतनापना माना । भूतवादी चार्वाक भूत पृथ्वी आदिक से चेतनता की उत्पत्ति मानता है, भूत तो जड़ है उसमें चेतनता कैसे उपजे ? इत्यादिक अन्य भी कई मानते हैं के सब अज्ञानी हैं, इसलिए चेतन में ही चेतन माने वह जो आत्मा को अचेतन हैं मानते अज्ञानिं वे । पर ज्ञानिजन तो आतमा को एक चेतन मानते ।।५८ ।। निरर्थक तप ज्ञान विरहित तप रहित जो ज्ञान है। यदि ज्ञान तप हों साथ तो निर्वाणपद की प्राप्ति हो ॥५९।।
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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