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हे मुनिवर ! पाप-पुण्य बंधादि का कारण परिणाम ही है। मिथ्यात्व, कषाय, असंयम और योगरूप भावों से पाप का बंध होता है। मिथ्यात्व रहित सम्यग्दृष्टि जीव पुण्य को बाँधता हैं । अत: तुम ऐसी भावना करो कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से आच्छादित हूँ, मैं इन्हें समाप्त कर निज स्वरूप को प्रकट करूँ। अधिक कहने से क्या ? त तो प्रतिदिन शील व उत्तरगणों का भेद-प्रभेदों सहित चिन्तन कर।
हे मुनि ! ध्यान से मोक्ष होता है। अत: तुम आर्त्त-रौद्र ध्यान को छोड़कर धर्म व शुक्ल ध्यान को धारण करो । द्रव्यलिंगी के धर्म व शुक्ल ध्यान नहीं होता, अत: वह संसाररूप वृक्ष को काटने में समर्थ नहीं है। जिस मुनि के मन में रागरूप पवन से रहित धर्मरूपी दीपक जलता है, वही आत्मा को प्रकाशित करता है, वही संसाररूपी वृक्ष को ध्यानरूपी कुल्हाड़ी से काटता है।
ज्ञान का एकाग्र होना ही ध्यान है । ध्यान द्वारा कर्मरूपी वृक्ष दग्ध हो जाता है, जिससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है. अत:भावश्रमण तो सखों को प्राप्त कर तीर्थंकर व गणधर आदि पदों को प्राप्त करते हैं: पर द्रव्यश्रमण दुःखों को ही भोगता है। अत: गुण-दोषों को जानकर तुम भाव सहित संयमी बनो।
भावश्रमण विद्याधरादि की ऋद्धियों को नहीं चाहता, न ही वह मनुष्य-देवादि के सुखों की वांछा करता है। वह चाहता है कि मैं शीघ्रातिशीघ्र आत्महित कर लूँ।
हे धीर ! जिसप्रकार गुड़मिश्रित दूध के पीने पर भी सर्प विषरहित नहीं होता, उसीप्रकार अभव्य जीव जिनधर्म के सुनने पर भी अपनी दुर्मत से आच्छादित बुद्धि को नहीं छोड़ता । वह मिथ्या धर्म से युक्त रहता हुआ मिथ्या धर्म का पालन करता है, अज्ञान तप करता है, जिससे दुर्गति को प्राप्त होता हुआ संसार में भ्रमण करता है; अत: तुझे ३६३ पाखण्डियों के मार्ग को छोड़कर जिनधर्म में मन लगाना चाहिए।
सम्यग्दर्शन की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि जिसप्रकार लोक में जीव रहित शरीर को 'शव' कहते हैं, वैसे ही सम्यग्दर्शन रहित पुरुष चल शव है। शव लोक में अपूज्य होता है और सम्यग्दर्शन रहित पुरुष लोकोत्तर मार्ग में अपूज्य होता है । मुनि व श्रावक धर्मों में सम्यक्त्व की ही विशेषता है। जिसप्रकार ताराओं के समूह में चन्द्रमा सुशोभित होता है, पशुओं में मृगराज सुशोभित होता है; उसीप्रकार जिनमार्ग में जिनभक्ति सहित निर्मल सम्यग्दर्शन से युक्त तप-व्रतादि से निर्मल जिनलिंग सुशोभित होता है।
इसप्रकार सम्यक्त्व के गुण व मिथ्यात्व के दोषों को जानकर गुणरूपी रत्नों के सार मोक्षमहल की प्रथम सीढ़ी सम्यग्दर्शन को भावपूर्वक धारण करना चाहिए।
जिसप्रकार कमलिनी स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होती, उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि जीव भी स्वभाव से ही विषय-कषायों में लिप्त नहीं होता । आचार्यदेव कहते हैं कि जो भावसहित सम्पूर्ण शील-संयमादि गुणों से युक्त हैं, उन्हें ही हम मुनि कहते हैं। मिथ्यात्व से मलिन चित्तवाले बहुत दोषों के आवास मुनिवेष धारी जीव तो श्रावक के समान भी नहीं हैं।
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