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अष्टपाहुड ____ भावार्थ - ज्ञानी सम्यग्दृष्टि मुनि के परद्रव्य में रागद्वेष नहीं है, क्योंकि राग उसको कहते हैं कि जो परद्रव्य को सर्वथा इष्ट मानकर राग करता है, वैसे ही अनिष्ट मानकर द्वेष करता है, परन्तु सम्यग्ज्ञानी परद्रव्य में इष्ट अनिष्ट की कल्पना ही नहीं करता है तब राग-द्वेष कैसे हों ? चारित्रमोह के उदयवश होने से कुछ धर्मराग होता है, उसको भी रोग (राग) जानता है, भला नहीं समझता है तब अन्य में कैसे राग हो ? परद्रव्य से राग-द्वेष करता है वह तो अज्ञानी है, ऐसे जानना ।।५४।। ___ आगे कहते हैं कि जैसे परद्रव्य में रागभाव होता है वैसे मोक्ष के निमित्त भी राग हो तो वह राग भी आस्रव का कारण है, उसे भी ज्ञानी नहीं करता है -
आसवहेदू य तहा भावं मोक्खस्स कारणं हवदि। सो तेण दु अण्णाणी आदसहावा दु विवरीदु ।।५५।।
आस्रवहेतुश्च तथा भाव: मोक्षस्य कारणं भवति ।
स: तेन तु अज्ञानी आत्मस्वाभावात्तु विपरीतः।।५५।। अर्थ - जैसे परद्रव्य में राग को कर्मबंध का कारण पहिले कहा वैसे ही राग भाव यदि मोक्ष के निमित्त भी हो तो आस्रव का ही कारण है, कर्म का बंध ही करता है; इसकारण से जो मोक्ष को परद्रव्य की तरह इष्ट मानकर वैसे ही रागभाव करता है तो वह जीव मुनि भी अज्ञानी है, क्योंकि वह आत्मस्वभाव से विपरीत है, उसने आत्मस्वभाव को नहीं जाना है।
भावार्थ - मोक्ष तो सब कर्मों से रहित अपना ही स्वभाव है अपने को सब कर्मों से रहित होना है इसलिए यह भी रागभाव ज्ञानी के नहीं होता है, यदि चारित्रमोह का उदयरूप राग हो तो उस राग को भी बंध का कारण जानकर रोग के समान छोड़ना चाहे तो वह ज्ञानी है ही और इस रागभाव को भला समझकर आप करता है तो अज्ञानी है। आत्मा का स्वभाव सब रागादिकों से रहित है उसको इसने नहीं जाना, इसप्रकार रागभाव को मोक्ष का कारण और अच्छा समझकर करते हैं, उसका निषेध है ।।५५।।
आगे कहते हैं कि जो कर्ममात्र से ही सिद्धि मानता है उसने आत्मस्वभाव को नहीं जाना है
निज भाव से विपरीत अर जो आस्रवों के हेत हैं। जो उन्हें मानें मुक्तिमग वे साधु सचमुच अज्ञ हैं ।।५५।। अरे जो कर्मजनित वे करें आत्मस्वभाव को। खण्डित अत: वे अज्ञजन जिनधर्म के दूषक कहे ।।५६।।