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दर्शनविहीनपुरुष: न लभते तं इष्टं लाभम् ।। ३९।।
अर्थ - जो पुरुष दर्शन से शुद्ध है वह ही शुद्ध है, क्योंकि जिसका दर्शन शुद्ध है वही निर्वाण को पाता है जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह पुरुष ईप्सित लाभ अर्थात् मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है।
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भावार्थ - लोक में प्रसिद्ध है कि कोई पुरुष कोई वस्तु चाहे और उसकी रुचि प्रतीति श्रद्धा न हो तो उसकी प्राप्ति नहीं होती है इसलिए सम्यग्दर्शन ही निर्वाण की प्राप्ति में प्रधान है ।। ३९ ।। आगे कहते हैं कि ऐसे सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने का उपदेश सार है, उसको जो मानता है, वह सम्यक्त्व है -
इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु । तं सम्मत्तं भणियं सवणाणं सावयाणं पि ॥ ४० ॥
अष्टपाहुड
इति उपदेशं सारं जरामरणहरं स्फुटं मन्यते यत्तु ।
तत् सम्यक्त्वं भणितं श्रमणानां श्रावकाणामपि ॥४०॥
अर्थ : - इसप्रकार सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का उपदेश सार है, जो जरा व मरण को हरनेवाला है, इसको जो मानता है, श्रद्धान करता वह ही सम्यक्त्व कहा है। वह मुनियों को तथा श्रावकों को सभी को कहा है, इसलिए सम्यक्त्वपूर्वक ज्ञान चारित्र को अंगीकार करो।
भावार्थ - जीव के जितने भाव हैं, उनमें सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सार है, उत्तम हैं, जीव के हित हैं और इनमें भी सम्यग्दर्शन प्रधान है, क्योंकि इसके बिना ज्ञान, चारित्र भी मिथ्या कहलाते हैं इसलिए सम्यग्दर्शन को प्रधान जानकर पहिले अंगीकार करना, यह उपदेश मुनि तथा श्रावक सभी को है ।। ४० ।।
आगे सम्यग्ज्ञान का स्वरूप कहते हैं -
जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेड़ जिणवरमएण । तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं ।। ४१ ।। जीवाजीवविभक्तिं योगी जानाति जिनवरमतेन ।
उपदेश का यह सार जन्म-जरा-मरण का हरणकर । समदृष्टि जो मानें इसे वे श्रमण - श्रावक कहे हैं ॥४०॥ यह सर्वदर्शी का कथन कि जीव और अजीव की । भिन- भिन्नता को जानना ही एक सम्यग्ज्ञान है । । ४१ ।।