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मोक्षपाहुड
२५७ अर्थ - आचार्य कहते हैं कि जो पाँच महाव्रतयुक्त हो गया तथा पाँच समिति व तीन गुप्तियों से युक्त हो गया और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपी रत्नत्रय से संयुक्त हो गया - ऐसे बनकर हे मुनिजनों ! तुम ध्यान और अध्ययन-शास्त्र के अभ्यास को सदा करो।
भावार्थ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग ये पाँच महाव्रत, ईर्या, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण, प्रतिष्ठापना ये पाँच समिति और मन, वचन, काय के निग्रहरूप तीन गप्ति यह तेरह प्रकार का चारित्र जिनदेव ने कहा है, उससे युक्त हो और निश्चय व्यवहाररूप, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र कहा है इनसे युक्त होकर ध्यान और अध्ययन करने का उपदेश है। इनमें भी प्रधान तो ध्यान ही है और यदि इसमें मन न रुके तो शास्त्र के अभ्यास में मन को लगावे, यह भी ध्यानतल्य ही है. क्योंकि शास्त्र में परमात्मा के स्वरूप का निर्णय है. सो यह ध्यान का ही अंग है ।।३३।। आगे कहते हैं कि जो रत्नत्रय की आराधना करता है, वह जीव आराधक ही है -
रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्वो। आराहणविहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ।।३४।। रत्नत्रयमाराधयन् जीव: आराधकः ज्ञातव्यः।
आराधनाविधानं तस्य फलं केवलं ज्ञानम् ।।३४।। अर्थ – रत्नत्रय सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की आराधना करते हुए जीव को आराधक जानना और आराधना के विधान का फल केवलज्ञान है।
भावार्थ - जो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की आराधना करता है, वह केवलज्ञान को प्राप्त करता है, वह जिनमार्ग में प्रसिद्ध है ।।३४।। आगे कहते हैं कि शुद्धात्मा है वह केवलज्ञान है और केवलज्ञान है वह शुद्धात्मा है -
सिद्धो सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरिसी य। सो जिणवरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं णाणं ।।३५।।
आराधना करते हुये को अराधक कहते सभी । आराधना का फल सुनो बस एक केवलज्ञान है।।३४।। सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी आतमा सिध शुद्ध है। यह कहा जिनवरदेव ने तुम स्वयं केवलज्ञानमय ।।३५।।