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अष्टपाहुड आगे कहते हैं कि जो स्वद्रव्य में रत है, वह सम्यग्दृष्टि होता है और कर्मों का नाश करता है
सद्दव्वरओ सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण। सम्मत्तपरिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठकम्माई।।१४।।
स्वद्रव्यरत: श्रमण: सम्यग्दृष्टि भवति नियमेन। सम्यक्त्वपरिणत: पुन: क्षपयति
द, ष्ट । ष्ट क मणि ।। १४ ।। अर्थ - जो मुनि स्वद्रव्य अर्थात् अपनी आत्मा में रत है, रुचि सहित है, वह नियम से सम्यग्दृष्टि है और वह ही सम्यक्त्व भावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट आठ कर्मों का क्षय-नाश करता है।
भावार्थ - यह भी कर्म के नाश करने का कारण संक्षेप कथन है । जो अपने स्वरूप की श्रद्धा, रुचि, प्रतीति से आचरण से युक्त है वह नियम से सम्यग्दृष्टि है, इस सम्यक्त्वभाव से परिणमन करता हुआ मुनि आठ कर्मों का नाश करके निर्वाण को प्राप्त करता है ।।१४।। आगे कहते हैं कि जो परद्रव्य में रत है वह मिथ्यादृष्टि होकर कर्मों को बाँधता है -
जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेइ सो साहू। मिच्छत्तपरिणदो पुण बज्झदि दुट्ठट्ठकम्मेहिं ।।१५।।
यः पुन: परद्रव्यरत: मिथ्यादृष्टि: भवति सः साधु।
मिथ्यात्वपरिणत: पुन: बध्यते दुष्टाष्टकर्मभिः ।।१५।। अर्थ – पुन: अर्थात् फिर जो साधु परद्रव्य में रत है, रागी है, वह मिथ्यादृष्टि होता है और वह मिथ्यात्वभावरूप परिणमन करता हुआ दुष्ट अष्ट कर्मों से बंधता है।
भावार्थ - यह बंध के कारण का संक्षेप है। यहाँ साधु कहने से ऐसा बताया है कि जो बाह्य परिग्रह छोड़कर निर्ग्रन्थ हो जावे तो भी मिथ्यादृष्टि होता हुआ संसार के दुःख देनेवाले अष्ट कर्मों
१. मु. सं. प्रति में 'क्षिपते' ऐसा पाठ है।
किन्तु जो परद्रव्य रत वे श्रमण मिथ्यादृष्टि हैं। मिथ्यात्व परिणत वे श्रमण दुष्टाष्ट कर्मों से बंधे ।।१५।। परद्रव्य से हो दुर्गति निजद्रव्य से होती सुगति । यह जानकर रति करो निज में अर करो पर से विरति ।।१६।।