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अष्टपाहुड
अर्थ - इसप्रकार देह में स्व-पर के अध्यवसाय ( निश्चय) के द्वारा मनुष्यों के सुत दारादिक जीवों में मोह की प्रवृत्ति करते हैं, कैसे हैं मनुष्य, जिनने पदार्थ का स्वरूप (अर्थात् आत्मा) नहीं जाना है - ऐसे हैं ।
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दूसरा अर्थ (इसप्रकार देह में स्व-पर के अध्यवसाय (निश्चय) के द्वारा जिन मनुष्यों ने पदार्थ के स्वरूप को नहीं जाना है उनके सुत दारादिक जीवों में मोह की प्रवृत्ति होती है | ) ( भाषा परिवर्तनकार ने यह अर्थ लिखा है)
भावार्थ - जिन मनुष्यों ने जीव-अजीव पदार्थ का स्वरूप यथार्थ नहीं जाना, उनके देह में स्वपराध्यवसाय है। अपनी देह को अपनी आत्मा जानते हैं और पर की देह को पर की आत्मा जानते हैं, उनके पुत्र-स्त्री आदि कुटुम्बियों में मोह (ममत्व) होता है । जब ये जीव-अजीव के स्वरूप को जानें तब देह को अजीव मानें, आत्मा को अमूर्तिक चैतन्य जानें, अपनी आत्मा को अपनी मानें और पर की आत्मा को पर मानें, तब पर में ममत्व नहीं होता है। इसलिए जीवादिक पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह जानकर मोह नहीं करना - यह बतलाया है ।। १० ।।
आगे कहते हैं कि मोहकर्म के उदय से (उदय में युक्त होने से ) मिथ्याज्ञान और मिथ्याभाव होते हैं, उससे आगामी भव में भी यह मनुष्य देह को चाहता है -
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मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो ।
मोहोदएण पुणरवि अंगं 'सं मण्णए मणुओ ।। ११ ।।
मिथ्याज्ञानेषु रत: मिथ्याभावेन भावितः सन् ।
मोहोदयेन पुनरपि अंगं स्वं मन्यते मनुज: ।।११।।
अर्थ - यह मनुष्य मोहकर्म के उदय से (उदय के वश होकर) मिथ्याज्ञान के द्वारा मिथ्याभाव से भाया हुआ फिर आगामी जन्म इस अंग (देह) को अच्छा समझकर चाहता ।
भावार्थ – मोहकर्म की प्रकृति मिथ्यात्व के उदय से (उदय के वश होने से ) ज्ञान भी मिथ्या
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होता है, परद्रव्य को अपना जानता है और उस मिथ्यात्व ही के द्वारा मिथ्या श्रद्धान होता है, उससे निरन्तर परद्रव्य में यह भावना रहती है कि यह मुझे सदा प्राप्त होवे, इससे यह प्राणी आगामी देह को भला जानकर चाहता है ।। ११ ।।
आगे कहते हैं कि जो मुनि देह में निरपेक्ष है, देह को नहीं चाहता है, इसमें ममत्व नहीं करता
१. मुद्रित सं. प्रति में 'सं मण्णए' ऐसा प्राकृत पाठ है जिसका 'स्वं मन्यते' ऐसा संस्कृत पाठ है।
कुज्ञान में रत और मिथ्याभाव से भावित श्रमण ।
मद-मोह से आच्छन्न भव-भव देह को ही चाहते ।। ११ ।। जो देह से निरपेक्ष निर्मम निरारंभी योगिजन । निर्द्वन्द रत निजभाव में वे ही श्रमण मुक्ति वरें ।। १२ ।।