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'आचार्य कुन्दकुन्द और उनके टीकाकार' नामक ग्रन्थ में सुव्यवस्थित रूप से दिया गया है, जिसका संक्षिप्त रूप इसप्रकार है -
बाह्य परिग्रह का त्याग भावों की शुद्धि के लिए ही किया जाता है, परन्तु रागादि अंतरंग परिग्रह के त्याग बिना बाह्य त्याग निष्फल ही है; क्योंकि अंतरंग भावशुद्धि बिना करोड़ों वर्ष तक भी बाह्य तप करें, तब भी सिद्धि नहीं होती। अत: मुक्तिमार्ग के पथिकों को सर्वप्रथम भाव को ही पहिचानना चाहिए। __ हे आत्मन् ! तूने भावरहित निर्ग्रन्थ रूप तो अनेक बार ग्रहण किये हैं, पर भावलिंग बिना-शुद्धात्मतत्त्व की भावना बिना चतुर्गति में भ्रमण करते हुए अनन्त दुःख उठाये हैं। नरकगति में सर्दी, गर्मी, आवासादि के; तिर्यंचगति में खनन, ज्वलन, वेदना व्युच्छेदन, निरोधन आदि के मनुष्यगति में आगन्तुक, मानसिक, शारीरिक आदि एवं देवगति में वियोग. हीन भावना आदि के द:ख भोगे हैं। ___ अधिक क्या कहें, आत्मभावना के बिना तू माँ के गर्भ में महा अपवित्र स्थान में सिकुड़ के रहा। आजतक तूने इतनी माताओं का दूध पिया है कि यदि उसे इकट्ठा किया जावे तो सागर भर जावे। तेरे जन्म-मरण से दु:खी माताओं के अश्रुजल से भी सागर भर जावे। इसीप्रकार तूने इस अनंत संसार में इतने जन्म लिये हैं कि उनके केश, नख, नाल और अस्थियों को इकट्ठा करें तो सुमेरु पर्वत से भी बड़ा ढेर हो जावे।
हे आत्मन् ! तूने आत्मभाव रहित होकर तीन लोक में जल, थल, अग्नि, पवन, गिरि, नदी, वृक्ष, वन आदि स्थलों पर सर्वत्र सर्व द:ख सहित निवास किया: सर्व पदगलों का बार-बार भक्षण किया. फिर भी तृप्ति नहीं हुई । इसीप्रकार तृषा से पीड़ित होकर तीन लोक का समस्त जल पिया, तथापि तृषा शान्त न हुई। अतः अब समस्त बातों का विचार कर, भव को समाप्त करनेवाले रत्नत्रय का चिन्तन कर।
हे धीर! तुमने अनन्त भवसागर में अनेकबार उत्पन्न होकर अपरिमित शरीर धारण किये व छोड़े हैं, जिनमें से मनष्यगति में विषभक्षणादि व तिर्यंचगति में हिमपातादि द्वारा कमरण को प्राप्त होकर महादःख भोगे हैं । निगोद में तो एक अन्तर्महर्त में छियासठ हजार तीन सौ छत्तीस बार जन्म-मरण किया है।
हे जीव ! तने रत्नत्रय के अभाव में द:खमय संसार में अनादिकाल से भ्रमण किया है. अतः अब तम आत्मा के श्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप रत्नत्रय की प्राप्ति करो, ताकि तुम्हारा मरण कुमरण न बनकर सुमरण बन जाए और शीघ्र ही शाश्वत सुख को प्राप्त करो।
अब आचार्य भावरहित मात्र द्रव्यलिंग धारण करने के पश्चात हुए दु:खों का वर्णन करते हैं।
हे मुनिवर ! तीन लोक में कोई ऐसा स्थल शेष नहीं है, जहाँ तूने द्रव्यलिंग धारण कर जन्म-मरण धारण न किया हो । न ही कोई पुद्गल ऐसा बचा है, जिसे तूने ग्रहण कर छोड़ा न हो; फिर भी तेरी मुक्ति नहीं हुई, अपितु भावलिंग न होने से अनंतकाल तक जन्म-जरा आदि से पीड़ित होते हुए दुःखों को ही भोगा है।
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