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मोक्षपाहुड
नमस्कार किया यह युक्त है। जहाँ जैसा प्रकरण वहाँ वैसी योग्यता । यहाँ भाव - मोक्ष तो अरहंत के हैं और द्रव्य-भाव दोनों प्रकार के मोक्ष सिद्ध परमेष्ठी के हैं, इसलिए दोनों को नमस्कार जानो ।। १ ।
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आगे इसप्रकार नमस्कार कर ग्रंथ करने की प्रतिज्ञा करते हैं -
णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥ २ ॥ नत्वा च तं देवं अनंतवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् । वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ।।२।।
अर्थ – आचार्य कहते हैं कि उस पूर्वोक्त देव को नमस्कार कर, परमात्मा जो उत्कृष्ट शुद्ध आत्मा उसको, परम योगीश्वर जो उत्कृष्ट योग्य ध्यान के करनेवाले मुनिराजों के लिए कहूँगा । कैसा है पूर्वोक्त देव ? जिसके अनन्त और श्रेष्ठ ज्ञान - दर्शन पाया जाता है, विशुद्ध है-कर्ममल से रहित है, जिसका पद परम उत्कृष्ट है।
भावार्थ - इस ग्रंथ में मोक्ष को जिस कारण से पावे और जैसा मोक्षपद है, वैसा वर्णन करेंगे, इसलिए उसी रीति उसी की प्रतिज्ञा की है । योगीश्वरों के लिए कहेंगे, इसका आशय यह है ि ऐसे मोक्षपद को शुद्ध परमात्मा के ध्यान द्वारा प्राप्त करते हैं, उस ध्यान की योग्यता योगीश्वरों के ही प्रधानरूप से पाई जाती है, गृहस्थों के यह ध्यान प्रधान नहीं है ।। २ ।।
आगे कहते हैं कि जिस परमात्मा को कहने की प्रतिज्ञा की है उसको योगी ध्यानी मुनि जानकर उसका ध्यान करके परम पद को प्राप्त करते हैं -
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जं जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं । अव्वाबाहमणतं अणोवमं लहइ णिव्वाणं ।। ३ ।। यत् ज्ञात्वा योगी योगस्थ: दष्ट्वा अनवरतम् । अव्याबाधमनंतं अनुपमं लभते निर्वाणम् ||३||
परमपदथित शुध अपरिमित ज्ञान दर्शनमय प्रभु । को नमन कर हे योगिजन ! परमात्म का वर्णन करूँ ॥२॥ योगस्थ योगीजन अनवरत अरे ! जिसको जान कर । अनंत अव्याबाध अनुपम मोक्ष की प्राप्ति करें । । ३ । ।