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भावपाहुड
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अर्थ - पूर्वोक्त भावसहित सम्यग्दृष्टि पुरुष हैं और शील संयम गुणों से सकल कला अर्थात् संपूर्ण कलावान् होते हैं, उन ही को हम मुनि कहते हैं। जो सम्यग्दृष्टि नहीं है, मलिनचित्तसहित मिथ्यादृष्टि है और बहुत दोषों का आवास (स्थान) है, वह तो भेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है।
भावार्थ - जो सम्यग्दृष्टि है और शील (उत्तर गुण) तथा संयम (मूलगुण) सहित है वह मुनि है। जो मिथ्यादृष्टि है अर्थात् जिसका चित्त मिथ्यात्व से मलिन है और जिसमें क्रोधादि विकाररूप बहुत दोष पाये जाते हैं, वह तो मुनि का भेष धारण करता है तो भी श्रावक के समान भी नहीं है, श्रावक सम्यग्दृष्टि हो और गृहस्थाचार के पापसहित हो तो भी उसके बराबर वह केवल भेषमात्र को धारण करनेवाला मुनि नहीं है ऐसा आचार्य ने कहा है ।।१५५।। आगे कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि होकर जिनने कषायरूप सुभट जीते, वे ही धीरवीर हैं -
ते धीरवीरपुरिसा खमदमखग्गेण विप्फुरंतेण। दुजयपबलबलुद्धरकसायभड णिज्जिया जेहिं ।।१५६।।
ते धीरवीरपुरुषाः क्षमादमखड्गेण विस्फुरता।
दुर्जयप्रबलबलोद्धतकषायभटा: निर्जिता यैः।।१५६।। अर्थ – जिन पुरुषों ने क्षमा और इन्द्रियों का दमन, वह ही हुआ विस्फुरता अर्थात् सजाया हुआ मलिनतारहित उज्ज्वल खड्ग, उससे जिनको जीतना कठिन है ऐसे दुर्जय, प्रबल तथा बल से उद्धत कषायरूप सुभटों को जीते, वे ही धीरवीर सुभट हैं, अन्य संग्रामादिक में जीतनेवाले तो 'कहने के सुभट' हैं।
भावार्थ - युद्ध में जीतनेवाले शूरवीर तो लोक में बहत हैं. परन्त कषायों को जीतनेवाले विरले हैं, वे मुनिप्रधान हैं और वे ही शूरवीरों में प्रधान है। जो सम्यग्दृष्टि होकर कषायों को जीतकर चारित्रवान् होते हैं वे मोक्ष पाते हैं, ऐसा आशय है।।१५६।।
आगे कहते हैं कि आप दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप होते हैं, वे अन्य को भी उन सहित करते हैं,
पुष्पित विषयमय पुष्पों से अर मोहवृक्षारूढ़ जो। अशेष माया बेलि को मुनि ज्ञानकरवत काटते ।।१५८।। मोहमद गौरवरहित करुणासहित मुनिराज जो। अरे पापस्तंभ को चारित खड़ग से काटते ।।१५९।।