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भावपाहुड
२२३ अर्थ - जैसे तारकाओं के समूह में चन्द्रमा अधिक है और मृगकुल अर्थात् पशुओं के समूह में मृगराज (सिंह) अधिक है, वैसे ही ऋषि (मुनि) और श्रावक - इन दो प्रकार के धर्मों में सम्यक्त्व है, वह अधिक है।
भावार्थ - व्यवहार धर्म की जितनी प्रवृत्तियाँ हैं, उनमें सम्यक्त्व अधिक है, इसके बिना सब संसारमार्ग बंध का कारण है ।।१४४।। फिर कहते हैं -
जह फणिराओसोहइ फणमणिमाणिक्ककिरणविप्फुरिओ। तह विमलदसणधरो जिणभत्ती पवयणे 'जीवो।।१४५।। यथा फणिराजः शोभते फणमणिमाणिक्यकिरणविस्फुरितः।
तथा विमलदर्शनधरः जिनभक्तिः प्रवचने जीवः ।।१४५।। अर्थ - जैसे फणिराज (धरणेन्द्र) सो फण जो सहस्र फण उसमें लगे हुए मणियों के बीच के लाल माणिक्य उसकी किरणों से विस्फुरित (दैदीप्यमान) शोभा पाता है, वैसे ही जिनभक्तिसहित निर्मल सम्यग्दर्शन का धारक जीव इससे प्रवचन अर्थात् मोक्षमार्ग के प्ररूपण में शोभा पाता है।
भावार्थ - सम्यक्त्वसहित जीव की जिनवचन में बड़ी अधिकता है। जहाँ-तहाँ (सब जगह) शास्त्रों में सम्यक्त्व की ही प्रधानता कही है।।१४५।। आगे सम्यग्दर्शनसहित लिंग है उसकी महिमा कहते हैं -
जह तारायणसहियं ससहरबिंबं खमंडले विमले। भाविय तववयविमलं 'जिणलिंगंदसणविसुद्धं ।।१४६।। यथा तारागणसहितं शशधरबिंबं खमंडले विमले।
भावतं तपोव्रतविमलं जिनलिंगं दर्शनविशुद्धम् ।।१४६।। अर्थ - जैसे निर्मल आकाशमंडल में ताराओं के समूहसहित चन्द्रमा का बिंब शोभा पाता है, वैसे ही जिनशासन में दर्शन से विशुद्ध और भावित किये हुए तप तथा व्रतों से निर्मल जिनलिंग है सो शोभा पाता है।
१. पाठान्तरः - जीवो णिद्दिट्ठो। २. पाठान्तरः - जीव: निर्दिष्टः ।
देहमित अर कर्ता-भोक्ता जीव दर्शन-ज्ञानमय । अनादि अनिधन अमूर्तिक कहा जिनवर देव ने ।।१४८।।