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भावपाहुड
ज्ञानावरणादिभिः च अष्टभिः कर्मभि: वेष्टितश्च अहं ।
दग्ध्वा इदानीं प्रकटयामि अनन्तज्ञानादिगुणचेतनां ।।११९।। अर्थ - हे मुनिवर ! तू ऐसी भावना कर कि मैं ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से वेष्टित हूँ, इसलिए इनको भस्म करके अनन्तज्ञानादि गुण निजस्वरूप चेतना को प्रगट करूँ।
भावार्थ - अपने को कर्मों से वेष्टित माने और उनसे अनन्तज्ञानादि गुण आच्छादित माने तब उन कर्मों के नाश करने का विचार करे, इसलिए कर्मों के बंध की और उनके अभाव की भावना करने का उपदेश है। कर्मों का अभाव शुद्धस्वरूप के ध्यान से होता है, उसी के करने का उपदेश है।
कर्म आठ हैं - १. ज्ञानावरण, २. दर्शनावरण, ३. मोहनीय, ४. अंतराय - ये चार घातिया कर्म हैं, इनकी प्रकृति सैंतालीस हैं, केवलज्ञानावरण से अनन्तज्ञान आच्छादित है, केवलदर्शनावरण से अनन्तदर्शन आच्छादित है, मोहनीय से अनन्तसुख प्रगट नहीं होता है और अंतराय से अनन्तवीर्य प्रगट नहीं होता है, इसलिए इनका नाश करो। चार अघातिकर्म हैं, इनसे अव्याबाध, अगुरुलघु, सूक्ष्मता और अवगाहना ये गुण (इन गुणों की निर्मल पर्याय) प्रगट नहीं होते हैं, इन अघातिकर्मों की प्रकृति एक सौ एक है। घातिकर्मों का नाश होने पर अघातिकर्मों का स्वयमेव अभाव हो जाता है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।११९।।। आगे इन कर्मों का नाश होने के लिए अनेक प्रकार का उपदेश है, उसको संक्षेप से कहते हैं -
सीलसहस्सट्ठारस चउरासीगुणगणाण लक्खाई। भावहि अणुदिणु णिहिलं असप्पलावेण किंबहुणा ।।१२०।।
शीलसहस्राष्टादश चतुरशीतिगणगणानां लक्षाणि।
भावय अनुदिनं निखिलं असत्प्रलापेन किंबहुना ।।१२०।। अर्थ - शील अठारह हजार भेदरूप है और उत्तरगुण चौरासी लाख हैं। आचार्य कहते हैं कि हे मुने ! बहुत झूठे प्रलापरूप निरर्थक वचनों से क्या ? इन शीलों को और उत्तरगुणों को सबको तू निरन्तर भा, इनकी भावना-चिन्तन-अभ्यास निरन्तर रख, जैसे इनकी प्राप्ति हो वैसे ही कर।
भावार्थ - ‘आत्मा-जीव' नामक वस्तु अनन्तधर्मस्वरूप है। संक्षेप से इसकी दो परिणति है, एक स्वाभाविक और एक विभावरूप । इनमें स्वाभाविक तो शुद्धदर्शनज्ञानमयी चेतनापरिणाम है और विभावपरिणाम कर्म के निमित्त से है। ये प्रधानरूप से तो मोहकर्म के निमित्त से हुए हैं। संक्षेप से मिथ्यात्व रागद्वेष हैं, इनके विस्तार से अनेक भेद हैं। अन्य कर्मों के उदय से विभाव होते