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अष्टपाहुड है कि पूजादिक में और व्रतसहित होना है वह तो 'पुण्य' है, इसमें पूजा और आदि शब्द से भक्ति, वंदना, वैयावृत्त्य आदिक समझना, यह तो देव-गुरु-शास्त्र के लिए होता है और उपवास आदिक व्रत है वह शुभक्रिया है, इनमें आत्मा का रागसहित शुभपरिणाम है उससे पुण्यकर्म होता है इसलिए इनको पुण्य कहते हैं। इसका फल स्वर्गादिक भोगों की प्राप्ति है। ___ मोह के क्षोभ से रहित आत्मा के परिणाम को धर्म समझिये। मिथ्यात्व तो अतत्त्वार्थश्रद्धान है, क्रोध-मान-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा ये छह द्वेषप्रकृति हैं और माया, लोभ, हास्य, रति ये चार तथा पुरुष, स्त्री, नपुंसक ये तीन विकार, ऐसे सात प्रकृति रागरूप हैं। इनके निमित्त से आत्मा का ज्ञान-दर्शनस्वभाव विकारसहित, क्षोभरूप, चलाचल, व्याकुल होता है इसलिए इन विकारों से रहित हो तब शुद्धदर्शनज्ञानरूप निश्चय हो वह आत्मा का 'धर्म' है। इस धर्म से आत्मा के आगामी कर्म का आस्रव रुककर संवर होता है और पहिले बँधे हुए कर्मों की निर्जरा होती है। संपूर्ण निर्जरा हो जाय तब मोक्ष होता है तथा एकदेश मोह के क्षोभ की हानि होती है, इसलिए शुभपरिणाम को भी उपचार से धर्म कहते हैं और जो केवल शुभपरिणाम ही को धर्म मानकर संतुष्ट है उनको धर्म की प्राप्ति नहीं है, यह जिनमत का उपदेश है ।।८३।। __ आगे कहते हैं कि जो ‘पुण्य' ही को 'धर्म' जानकर श्रद्धान करता है उसके केवल भोग का निमित्त है, कर्मक्षय का निमित्त नहीं है -
सद्दहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो वि फासेदि। पुण्णं भोयणिमित्तं ण हु सो कम्मक्खयणिमित्तं ।।८४।। श्रद्दधाति च प्रत्येति न रोचते च तथा पुनरपि स्पृशति।
पुण्यं भोगनिमित्तं न हि तत् कर्मक्षयनिमित्तम् ।।८४।। अर्थ – जो पुरुष पुण्य को धर्म जानकर श्रद्धान करते हैं, प्रतीति करते हैं, रुचि करते हैं और स्पर्श करते हैं उनके 'पुण्य' भोग का निमित्त है। इससे स्वर्गादिक भोग पाता है और वह पुण्य कर्म के क्षय का निमित्त नहीं होता है, यह प्रगट जानना चाहिए। भावार्थ - शुभक्रियारूप पुण्य को धर्म जानकर इसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करता है,
अर पुण्य भी है धर्म - ऐसा जान जो श्रद्धा करें। वे भोग की प्राप्ति करें पर कर्म क्षय न कर सकें।।८४|| रागादि विरहित आतमा रत आतमा ही धर्म है। भव तरण-तारण धर्म यह जिनवर कथन का मर्म है ।।८५।।