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अष्टपाहुड
भाव शुद्ध होने के कारण कहे ।।८।। आगे द्रव्य-भावरूप सामान्यरूप से जिनलिंग का स्वरूप कहते हैं -
पंचविहचेलचायं खिदिसयणंदुविहसंजमं भिक्खू। भावं भावियपुव्वं जिणलिंगं णिम्मलं सुद्धं ।।८१।। पंचविधचेलत्यागं क्षितिशयनं द्विविधसंयमं भिक्षु ।
भावं भावयित्वा पूर्वं जिनलिंगं निर्मलं शुद्धम् ।।८१।। अर्थ – निर्मल शुद्ध जिनलिंग इसप्रकार है जहाँ पाँचप्रकार के वस्त्र का त्याग है, भूमि पर शयन है, दो प्रकार का संयम है, भिक्षा भोजन है, भावितपूर्व अर्थात् पहिले शुद्ध आत्मा का स्वरूप परद्रव्य से भिन्न सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रमयी हुआ, उसे बारंबार भावना से अनुभव किया इसप्रकार जिसमें भाव है, ऐसा निर्मल अर्थात् बाह्यमलरहित शुद्ध अर्थात् अन्तर्मलरहित जिनलिंग है।
भावार्थ - यहाँ लिंग द्रव्य-भाव से दो प्रकार का है। द्रव्य तो बाह्य त्याग अपेक्षा है, जिसमें पाँच प्रकार के वस्त्र का त्याग है, वे पाँच प्रकार ऐसे हैं - १. अंडज अर्थात् रेशम से बना, २. बोंडुज अर्थात् कपास से बना, ३. रोमज अर्थात् ऊन से बना, ४. वल्कलज अर्थात् वृक्ष की छाल से बना, ५. चर्मज अर्थात् मृग आदिक के चर्म से बना, इसप्रकार पाँच प्रकार कहे। इसप्रकार नहीं जानना कि इनके सिवाय और वस्त्र ग्राह्य हैं, ये तो उपलक्षणमात्र कहे हैं, इसलिए सब ही वस्त्रमात्र का त्याग जानना।
भूमि पर सोना, बैठना इसमें काष्ठ तृण भी गिन लेना । इन्द्रिय और मन को वश में करना, छह काय के जीवों की रक्षा करना इसप्रकार दो प्रकार का संयम है। भिक्षा भोजन करना जिसमें कत. कारित, अनुमोदना का दोष न लगे - छियालीस दोष टले - बत्तीस अंतराय टले ऐसी विधि के अनुसार आहार करे । इसप्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले कहा वैसे ही वह भावलिंग' है,
इसप्रकार तो बाह्यलिंग है और पहिले कहा वैसे हो वह ‘भावलिंग' है, इसप्रकार दो प्रकार का शुद्ध जिनलिंग कहा है, अन्य प्रकार श्वेताम्बरादिक कहते हैं, वह जिनलिंग नहीं है ।।८१।।
आगे जिनधर्म की महिमा कहते हैं -
ज्यों श्रेष्ठ चंदन वृक्ष में हीरा रतन में श्रेष्ठ है। त्यों धर्म में भवभाविनाशक एक ही जिनधर्म है ।।८२।।