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अष्टपाहुड
पयलियमाणकसाओ पयलियमिच्छत्तमोहसमचित्तो । पावइ तिहुवणसारं बोही जिणसासणे जीवो । । ७८ ।। प्रगलितमानकषाय: प्रगलितमिथ्यात्वमोहसमचित्तः । आप्नोति त्रिभुवनसारं बोधिं जिनशासने जीव: ।।७८।।
अर्थ – यह जीव ‘प्रगलितमानकषायः' अर्थात् जिसका मान कषाय प्रकर्षता से गल गया है,
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किसी परद्रव्य से अहंकाररूप गर्व नहीं करता है और जिसके मिथ्यात्व का उदयरूप मोह भी नष्ट हो गया है इसीलिए 'समचित्त' है, परद्रव्य में ममकाररूप मिथ्यात्व और इष्ट-अनिष्ट बुद्धिरूप रागद्वेष जिसके नहीं है, वह जिनशासन में तीन भुवन में सार ऐसी बोधि अर्थात् रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग को पाता है।
भावार्थ – मिथ्यात्वभाव और कषायभाव का स्वरूप अन्य मतों में यथार्थ नहीं है। यह कथन इस वीतरागरूप जिनमत में ही है, इसलिए यह जीव मिथ्यात्व कषाय के अभावरूप लोक में सार मोक्षमार्ग जिनमत के सेवन ही से पाता है, अन्यत्र नहीं है । आगे कहते हैं कि जिनशासन में ऐसा मुनि ही तीर्थंकर प्रकृति बाँधता है विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाई भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेन ।। ७९ ।।
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विसयविरक्तः श्रमणः षोडशवरकारणानि भावयित्वा । तीर्थंकरनामकर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ।। ७९ ।।
अर्थ – जिसका चित्त इन्द्रियों के विषयों से विरक्त है ऐसा श्रमण अर्थात् मुनि है वह सोलहकारण भावना को भाकर ‘तीर्थंकर' नाम प्रकृति को थोड़े ही समय में बाँध लेता है।
भावार्थ - यह भाव का माहात्म्य है (सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वज्ञान सहित - स्वसन्मुखता सहित) विषयों से विरक्त भाव होकर सोलहकारण भावना भावे तो, अचिंत्य है महिमा जिसकी ऐसी तीनलोक से पूज्य ‘तीर्थंकर' नाम प्रकृति को बांधता है और उसको भोगकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
जो श्रमण विषयों से विरत वे सोलहकारणभावना ।
भा तीर्थंकर नामक प्रकृति को बाँधते अतिशीघ्र ही ।। ७९ ।। तेरह क्रिया तप वार विध भा विविध मनवचकाय से ।
मुनिप्रवर ! मन मत्तगज वश करो अंकुश ज्ञान से ।। ८० ।।