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भावपाहुड
१७५ स्वांग दीखता है। भांड भी नाचे तब शृंगारादिक करके नाचे तो शोभा पावे, नग्न होकर नाचे तब हास्य को पावे, वैसे ही केवल द्रव्यनग्न हास्य का स्थान है।।७१।।
आगे इसी अर्थ के समर्थनरूप कहते हैं कि द्रव्यलिंगी जैसी बोधि-समाधि जिनमार्ग में कही है वैसी नहीं पाता है -
जे रायसंगजुत्ता जिणभावणरहियदव्वणिग्गंथा। ण लहंति ते समाहिं बोहिं जिणसासणे विमले ।।७२।।
ये रागसंयुक्ता: जिनभावनारहितद्रव्यनिर्ग्रन्थाः।
न लभंते ते समाधिं बोधिं जिनशासने विमले ।।७२।। अर्थ - जो मुनि राग अर्थात् अभ्यन्तर परद्रव्य से प्रीति, वही हुआ संग अर्थात् परिग्रह उससे युक्त है और जिनभावना अर्थात् शुद्धस्वरूप की भावना से रहित हैं, वे द्रव्यनिर्ग्रन्थ हैं तो भी निर्मल जिनशासन में जो समाधि अर्थात् धर्मशुक्लध्यान और बोधि अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्रस्वरूप मोक्षमार्ग को नहीं पाते हैं।
भावार्थ - द्रव्यलिंगी अभ्यन्तर का राग नहीं छोड़ता है, परमात्मा का ध्यान नहीं करता है, तब कैसे मोक्षमार्ग पावे तथा कैसे समाधिमरण पावे? ।।७२।।
आगे कहते हैं कि पहिले मिथ्यात्व आदिक दोष छोड़कर भाव से नग्न हो, पीछे द्रव्यमुनि बने यह मार्ग है -
भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताई य दोस चइऊणं । पच्छा दव्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए।।७३।। भावेन भवति नग्नः मिथ्यात्वादीन् च दोषान् त्यक्त्वा।
पश्चात् द्रव्येण मुनिः प्रकटयति लिंगं जिनाज्ञया ।।७३।। अर्थ - पहिले मिथ्यात्व आदि दोषों को छोड़कर और भाव से अंतरंग नग्न हो, एकरूप शुद्ध आत्मा का श्रद्धान ज्ञान आचरण करे, पीछे मुनि जिन आज्ञा से द्रव्य से बाह्यलिंग प्रकट करे, यह
मिथ्यात्व का परित्याग कर हो नग्न पहले भाव से। आज्ञा यही जिनदेव की फिर नग्न होवे द्रव्य से ।।७३।। हो भाव से अपवर्ग एवं भाव से ही स्वर्ग हो। पर मलिनमन अर भाव विरहित श्रमण तो तिर्यंच हो ।।७४।।