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________________ २३ विषय-सूची विषय पृष्ठ | विषय १. दर्शनपाहुड दर्शन भ्रष्ट होकर भी दर्शन धारकों से अपनी विनय भाषाकारकृत मंगलाचरण, देशभाषा लिखने चाहते हैं वे दुर्गति के पात्र हैं की प्रतिज्ञा लज्जादि के भय से दर्शन भ्रष्ट का विनय करे भाषा वचनिका बनाने का प्रयोजन तथा लघुता वह भी उसी के समान (भ्रष्ट) है के साथ प्रतिज्ञा व मंगल दर्शन की (मत की) मूर्ति कहाँ पर कैसे है कुन्दकुन्दस्वामिकृत भगवान को नमस्कार तथा कल्याण तथा अकल्याण का निश्चायक दर्शनमार्ग लिखने की सूचना सम्यग्दर्शन ही है धर्म की जड़ सम्यग्दर्शन है, उसके बिना वन्दन कल्याण अकल्याण के जानने का फल जिन की पात्रता भी नहीं वचन ही सम्यक्त्व के कारण होने से दुःख भाषावचनिका कृत दर्शन तथा धर्म का स्वरूप के नाशक हैं दर्शन के भेद तथा भेदों का विवेचन जिनागमोक्त दर्शन (मत) के भेषों का वर्णन दर्शन के उद्बोधक चिह्न सम्यग्दृष्टि का लक्षण सम्यक्त्व के आठ गुण और आठ गुणों का निश्चय व्यवहार भेदात्मक सम्यक्त्व का स्वरूप प्रशमादि चिह्नों में अन्तर्भाव ८ रत्नत्रय में भी मोक्षसोपान की प्रथम श्रेणि (पेड़ि) सुदेव-गुरु तथा सम्यक्त्व के आठ अंग १० से १२ । सम्यग्दर्शन ही है अतएव श्रेष्ठ रत्न है तथा धारण सम्यग्दर्शन के बिना बाह्य चारित्र मोक्ष का करने योग्य है कारण नहीं विशेष न हो सके तो जिनोक्त पदार्थ श्रद्धान ही सम्यक्त्व के बिना ज्ञान तथा तप भी कार्यकारी नहीं १२ करना चाहिए क्योंकि वह जिनोक्त सम्यक्त्व है सम्यक्त्व बिना सर्व ही निष्फल है तथा उसके जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय इन सद्भावों में सर्व ही सफल है पंचात्मकतारूप हैं वे वंदना योग्य हैं तथा कर्मरजनाशक सम्यग्दर्शन की शक्ति जल-प्रवाह के समान है गुणधारकों के गुणानुवाद रूप हैं १५ जो दर्शनादित्रय में भ्रष्ट हैं वे कैसे हैं यथाजात दिगम्बर स्वरूप को देखकर मत्सर भ्रष्ट पुरुष ही आप भ्रष्ट होकर धर्मधारकों भाव से जो विनयादि नहीं करता है वह के निंदक होते हैं मिथ्यादृष्टि है जो जिनदर्शन से भ्रष्ट हैं वे मूल से ही भ्रष्ट हैं और वंदना नहीं करने योग्य कौन ? वे सिद्धि को भी प्राप्त नहीं कर सकते वंदना करने योग्य कौन ? जिनदर्शन ही मोक्षमार्ग का प्रधान साधक रूप मोक्ष में कारण क्या है ? १७ | गुणों में उत्तरोत्तर श्रेष्ठपना (२५) १२ २५ मूल है
SR No.008340
Book TitleAshtapahud
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size888 KB
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