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अष्टपाहुड
उदरे उषितोऽसि चिरं नवदशमासैः प्राप्तैः ।।३९।। अर्थ – हे मुने ! तूने इसप्रकार के मलिन अपवित्र उदर में नव मास तथा दस मास प्राप्त कर रहा। कैसा है उदर ? जिसमें पित्त और आंतों से वेष्टित, मूत्र का स्रवण, फेफस अर्थात् जो रुधिर बिना मेद फूल जावे, कलिज अर्थात् कलेजा, खून, खरिस अर्थात् अपक्व मल से मिला हुआ रुधिर श्लेष्म और कृमिजाल अर्थात् लट आदि जीवों के समूह ये सब पाये जाते हैं, इसप्रकार स्त्री के उदर में बहुत बार रहा ।।३९।। फिर इसी को कहते हैं -
दियसंगट्ठियमसणं आहारिय मायभुत्तमण्णांते। छदिखरिसाण मज्झे जढरे वसिओ सि जणणीए ।।४०।। द्विजसंगस्थितमशनं आहृत्य मातृभुक्तमन्नान्ते ।
छर्दिखरिसयोर्मध्ये जठरे उषितोऽसि जनन्याः ।।४०।। अर्थ - हे जीव ! तू जननी (माता) के उदर (गर्भ) में रहा, वहाँ माता के और पिता के भोग के अन्त छर्दि (वमन) का अन्न, खरिस (रुधिर से मिल हुआ अपक्व मल) के बीच में रहा, कैसा रहा ? माता के दाँतों से चबाया हुआ और उन दाँतों के लगा हुआ (रुका हुआ) झूठा भोजन माता के खाने के पीछे जो उदर में गया उसके रसरूपी आहार से रहा ।।४०।। आगे कहते हैं कि गर्भ से निकलकर इसप्रकार बालकपन भोगा -
सिसुकाले च अयाणे असुईमज्झम्मि लोलिओ सि तुमं । असुई असिया बहुसो मुणिवर बालत्तपत्तेण ।।४१।। शिशुकाले च अज्ञाने अशुचिमध्ये लोलितोऽसि त्वम्।
अशुचिः अशिता बहुशः मुनिवर ! बालत्वप्राप्तेन ।।४१।। अर्थ – हे मुनिवर ! तू बचपन के समय में अज्ञान अवस्था में अशुचि (अपवित्र) स्थानों में अशुचि के बीच लेटा और बहुत बार अशुचि वस्तु ही खाई, बचपन को पाकर इसप्रकार चेष्टायें
की।
तू रहा जननी उदर में जो जननि ने खाया-पिया। उच्छिष्ट उस आहार को ही तू वहाँ खाता रहा ।।४०।। शिशुकाल में अज्ञान से मल-मूत्र में सोता रहा। अब अधिक क्या बोलें अरेमल-मूत्र ही खाता रहा ।।४१।।