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भावपाहुड
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ग्रसिताः पुद्गलाः भवनोदरवर्तिनः सर्वे ।
प्राप्तोऽसि तन्न तृप्तिं पुनरुक्तान् तान् भुंजानः ।।२२।। अर्थ – हे जीव ! तूने इस लोक के उदर में वर्तते जो पुद्गल स्कन्ध, उन सबको ग्रसे अर्थात् भक्षण किये और उन ही को पुनरुक्त अर्थात् बारबार भोगता हुआ भी तृप्ति को प्राप्त न हुआ। फिर कहते हैं -
तिहुयणसलिलं सयलं पीयं तिहाए पीडिएण तुमे । तो वि ण तण्हाछेओ जाओ चिंतेह भवमहणं ।।२३।। त्रिभुवनसलिलं सकलं पीतं तृष्णाया पीडितेन त्वया।
तदपि न तृष्णाछेदः जातः चिन्तय भवमथनम् ।।२३।। अर्थ – हे जीव ! तूने इस लोक में तृष्णा से पीड़ित होकर तीनलोक का समस्त जल पिया तो भी तृषा का व्युच्छेद न हुआ अर्थात् प्यास न बुझी, इसलिए तू इस संसार का मंथन अर्थात् तेरे संसार का नाश हो, इसप्रकार निश्चय रत्नत्रय का चिन्तन कर।
भावार्थ - संसार में किसी भी तरह तृप्ति नहीं है, जैसे अपने संसार का अभाव हो वैसे चिन्तन करना अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र को धारण करना, सेवन करना यह उपदेश है।।२३।। आगे फिर कहते हैं -
गहिउज्झियाइं मुणिवर कलेवराइं तुमे अणेयाई। ताणं णत्थि पमाणं अणंतभवसायरे धीर ।।२४।। गृहीतोज्झितानि मुनिवर कलेवराणि त्वया अनेकानि।
तेषां नास्ति प्रमाणं अनन्तभवसागरे धीर! ।।२४।। अर्थ – हे मुनिवर ! हे धीर ! तूने इस अनन्त भवसागर में कलेवर अर्थात् शरीर अनेक ग्रहण किये और छोड़े, उनका परिमाण नहीं है।
त्रैलोक्य में उपलब्ध जल सब तृषित हो तूने पिया। पर प्यास फिर भी ना बुझी अब आत्मचिंतन में लगो।।२३।। जिस देह में तू रम रहा ऐसी अनन्ती देह तो। मूरख अनेकों बार तूने प्राप्त करके छोड़ दी ।।२४।।