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अष्टपाहुड ___ अर्थ - हे जीव ! तू चार प्रकार की विकथा में आसक्त होकर, मद से मत्त और जिसके अशुभ भावना का ही प्रकट प्रयोजन है, इसप्रकार होकर अनेकबार कुदेवपने को प्राप्त हुआ।
भावार्थ - स्त्रीकथा, भोजनकथा, देशकथा और राजकथा इन चार विकथाओं में आसक्त होकर वहाँ परिणाम को लगाया तथा जाति आदि आठ मदों से उन्मत्त हुआ ऐसी अशुभ भावना ही का प्रयोजन धारण कर अनेकबार नीच देवपने को प्राप्त हुआ, वहाँ मानसिक दुःख पाया।
यहाँ यह विशेष जानने योग्य है कि विकथादिक से तो नीच देव भी नहीं होता है, परन्तु यहाँ मुनि को उपदेश है, वह मुनिपद धारण कर कुछ तपश्चरणादिक भी करे और वेष में विकथादिक में रक्त हो तब नीच देव होता है, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१६।। __ आगे कहते हैं कि ऐसी कुदेवयोनि पाकर वहाँ से चय कर जो मनुष्य-तिर्यंच होवे, वहाँ गर्भ में आवे उसकी इसप्रकार व्यवस्था है -
असुईबीहत्थेहि य कलिमलबहुलाहि गब्भवसहीहि । वसिओ सि चिरं कालं अणेयजणणीण मुणिपवर ।।१७।। अशुचिवीभत्सासु य कलिमलबहुलासु गर्भवसतिषु।
उषितोऽसि चिरं कालं अनेकजननीनां मुनिप्रवर! ।।१७।। अर्थ – हे मुनिप्रवर ! तू कुदेवयोनि से चयकर अनेक माताओं की गर्भ की बसती में बहुत काल रहा। कैसी है वह बसती ? अशुचि अर्थात् अपवित्र है, बीभत्स (घिनावनी) है और उसमें कलिमल बहुत है अर्थात् पापरूप मलिन मल की अधिकता है।
भावार्थ - यहाँ ‘मुनिप्रवर' ऐसा सम्बोधन है सो प्रधानरूप से मुनियों को उपदेश है। जो मुनिपद लेकर मुनियों में प्रधान कहलावे और शुद्धात्मरूप निश्चय चारित्र के सन्मुख न हो, उसको कहते हैं कि बाह्य द्रव्यलिंग तो बहुतबार धारण कर चार गतियों में ही भ्रमण किया, देव भी हुआ तो वहाँ से चयकर इसप्रकार के मलिन गर्भवास में आया, वहाँ भी बहुतबार रहा ।।१७।। ___ आगे फिर कहते हैं कि इसप्रकार के गर्भवास से निकलकर जन्म लेकर अनेक माताओं का दूध पिया -
पीओ सि थणच्छीरं अणंतजम्मतराई जणणीणं । अण्णाण्णाण महाजस सायरसलिलादु अहिययरं ।।१८।। फिर अशुचितम वीभत्स जननी गर्भ में चिरकाल तक। दुख सहे तूने आजतक अज्ञानवश हे मुनिप्रवर ।।१७।।