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भावपाहुड
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आगंतुक माणसियं सहजं सारीरियं च चत्तारि । दुक्खाई मणुयजम्मे पत्तो सि अणंतयं कालं ।।११।।
आगंतुकं मानसिकं सहजं शारीरिकं च चत्वारि।
दुःखानि मनुजजन्मनि प्राप्तोऽसि अनन्तकं कालं ।।११।। अर्थ – हे जीव! तूने मनुष्यगति में अनन्तकाल तक आगन्तुक अर्थात् अकस्मात् वज्रपातादिक का आ गिरना, मानसिक अर्थात् मन में ही होनेवाले विषयों की वांछा का होना और तदनुसार न मिलना, सहज अर्थात् माता, पितादि द्वारा सहज से ही उत्पन्न हुआ तथा रागद्वेषादिक से वस्तु के इष्ट अनिष्ट मानने से दुःख का होना, शारीरिक अर्थात् व्याधि, रोगादिक तथा परकृत छेदन, भेदन आदि से हुए दुःख - ये चार प्रकार के और चकार से इनको आदि लेकर अनेक प्रकार के दु:ख पाये।।११।। आगे देवगति के दु:खों को कहते हैं -
सुरणिलयेसु सुरच्छरविओयकाले य माणसं तिव्वं । संपत्तो सि महाजस दुःखं सुहभावणारहिओ ।।१२।।
सुरनिलयेषु सुराप्सरावियोगकाले च मानसंतीव्रम् ।
संप्राप्तोऽसि महायश ! दुःखं शुभभावनारहितः ।।१२।। अर्थ – हे महायश ! तूने सुरनिलयेषु अर्थात् देवलोक में सुराप्सरा अर्थात् प्यारे देव तथा प्यारी अप्सरा के वियोगकाल में उसके वियोग संबंधी दु:ख तथा इन्द्रादिक बड़े ऋद्धिधारियों को देखकर अपने को हीन मानने के मानसिक तीव्र दुःखों को शुभभावना से रहित होकर पाये हैं।
भावार्थ - यहाँ ‘महायश' इसप्रकार सम्बोधन किया। उसका आशय यह है कि जो मुनि निर्ग्रन्थलिंग धारण करे और द्रव्यलिंगी मुनि की समस्त क्रिया करे, परन्तु आत्मा के स्वरूप शुद्धोपयोग के सन्मुख न हो उसको प्रधानतया उपदेश है कि मुनि हुआ वह तो बड़ा कार्य किया, तेरा यश लोक में प्रसिद्ध हुआ, परन्तु भली भावना अर्थात् शुद्धात्मतत्त्व के अभ्यास बिना
मानसिक देहिक सहज एवं अचानक आ पड़े। ये चतुर्विध दुख मनुजगति में आत्मन् तूने सहे ।।११।। हे महायश सुरलोक में परसंपदा लखकर जला।। देवांगना के विरह में विरहाग्नि में जलता रहा ।।१२।।