________________
१३४
अष्टपाहुड __ अर्थ - यदि मुनि बनकर परिणाम अशुद्ध होते हुए बाह्य परिग्रह को छोड़े तो बाह्य परिग्रह का त्याग उस भावरहित मुनि को क्या करे ? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं करता है।
भावार्थ - जो बाह्य परिग्रह को छोड़कर मुनि बन जावे और परिणाम परिग्रहरूप अशुद्ध हों, अभ्यन्तर परिग्रह न छोड़े तो बाह्यत्याग कुछ कल्याणरूप फल नहीं कर सकता। सम्यग्दर्शनादि भाव बिना कर्मनिर्जरारूप कार्य नहीं होता है ।।५।।
पहिली गाथा से इसमें यह विशेषता है कि यदि मुनिपद भी लेवे और परिणाम उज्ज्वल न रहे, आत्मज्ञान की भावना न रहे तो कर्म नहीं कटते हैं। आगे उपदेश करते हैं कि भाव को परमार्थ जानकर इसी को अंगीकार करो -
जाणहि भावं पढमं किं ते लिंगेण भावरहिएण। पंथिय सिवपुरिपंथं जिणउवइ8 पयत्तेण ।।६।।
जानीहि भावं प्रथमं किं ते लिंगेन भावरहितेन ।
पथिक शिवपुरीपंथा: जिनोपदिष्टः प्रयत्नेन ।।६।। अर्थ – हे शिवपुरी के पथिक ! प्रथम भाव को जान, भावरहित लिंग से तुझे क्या प्रयोजन है? शिवपुरी का पंथ जिनभगवंतों ने प्रयत्नसाध्य कहा है।
भावार्थ - मोक्षमार्ग जिनेश्वरदेव ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मभावस्वरूप परमार्थ से कहा है, इसलिए इसी को परमार्थ जानकर सर्व उद्यम से अंगीकार करो, केवल द्रव्यमात्र लिंग से क्या साध्य है ? इसप्रकार उपदेश है।।६।।
आगे कहते हैं कि द्रव्यलिंग आदि तूने बहुत धारण किये, परन्तु उससे कुछ भी सिद्धि नहीं हुई -
भावरहिएण सपुरिस अणाइकालं अणंतसंसारे। गहिउज्झियाई बहुसो बाहिरणिग्गंथरूवाइं ।।७।।
भावरहितेन सत्पुरुष! अनादिकालं अनंतसंसारे। गृहीतोज्झितानि बहुश: बाह्यनिग्रंथरूपाणि ।।७।। प्रथम जानो भाव को तुम भाव बिन द्रवलिंग से। तो लाभ कुछ होता नहीं पथ प्राप्त हो पुरुषार्थ से ।।६।। भाव बिन द्रवलिंग अगणित धरे काल अनादि से। पर आजतक हे आत्मन् ! सुख रंच भी पाया नहीं।।७।।