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भावपाहुड के अविरतसम्यग्दृष्टि आदिकों में वर अर्थात् श्रेष्ठ ऐसे गणधरादिकों में इन्द्र तीर्थंकर परमदेव हैं, वह गुणश्रेणीनिर्जरा शुद्धभाव से ही होती है। वे तीर्थंकरभाव के फल को प्राप्त हुए, घातिकर्म का नाशकर केवलज्ञान को प्राप्त किया, उसीप्रकार सर्वकर्मों का नाशकर, परम शुद्धभाव को प्राप्त कर सिद्ध हुए, आचार्य, उपाध्याय शुद्धभाव के एकदेश को प्राप्त कर पूर्णता को स्वयं साधते हैं तथा अन्य को शुद्धभाव की दीक्षा-शिक्षा देते हैं, इसीप्रकार साधु हैं वे ही शुद्धभाव को स्वयं साधते हैं और शुद्धभाव की ही महिमा से तीनलोक के प्राणियों द्वारा पूजने योग्य-वंदने योग्य कहे हैं, इसलिए भावप्राभृत' की आदि में इनको नमस्कार युक्त है। मस्तक द्वारा नमस्कार करने में सब अंग आ गये, क्योंकि मस्तक सब अंगों में उत्तम है। स्वयं नमस्कार किया तब अपने भावपूर्वक ही हुआ तब मन-वचन-काय' तीनों ही आ गये, इसप्रकार जानना चाहिए ।।१।। आगे कहते हैं कि लिंग द्रव्य भाव के भेद से दो प्रकार का है, इनमें भावलिंग परमार्थ है -
भावो हि पढमलिंगंण दव्वलिंगं च जाण परमत्थं । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा 'बेन्ति ।।२।। भावः हि प्रथमलिंगं न द्रव्यलिंगंच जानीहि परमार्थम्।
भावो कारणभूत: गुणदोषाणां जिना 'ब्रुवन्ति ।।२।। अर्थ - भाव प्रथमलिंग है, इसीलिए हे भव्य ! तू द्रव्यलिंग है उसको परमार्थरूप मत जान, क्योंकि गुण और दोषों का कारणभूत भाव ही है, इसप्रकार जिन भगवान कहते हैं।
भावार्थ - गुण जो स्वर्ग-मोक्ष का होना और दोष अर्थात् नरकादिक संसार का होना इनका कारण भगवान ने भावों को ही कहा है, क्योंकि कारण कार्य के पहिले होता है। यहाँ मुनि-श्रावक के द्रव्यलिंग के पहिले भावलिंग अर्थात् सम्यग्दर्शनादि निर्मलभाव हों तो सच्चा मुनि-श्रावक होता है, इसलिए भावलिंग ही प्रधान है। प्रधान है, वही परमार्थ है, इसलिए द्रव्यलिंग को परमार्थ न जानना, इसप्रकार उपदेश किया है।
यहाँ कोई पूछे - भाव का स्वरूप क्या है ? इसका समाधान - भाव का स्वरूप तो आचार्य आगे कहेंगे पर यहाँ भी कुछ कहते हैं - इस लोक में छहद्रव्य हैं, इनमें जीव-पुद्गल का वर्त्तन प्रकट देखने में आता है - जीव चेतनास्वरूप है और पुद्गल स्पर्श, रस, गंध और वर्णस्वरूप १. पाठान्तरः - विन्ति। २. पाठान्तरः - विदन्ति ।
बस भाव ही गुण-दोष के कारण कहे जिनदेव ने। भावलिंग ही परधान हैं द्रव्यलिंग न परमार्थ है ।।२।।